: द्वि भाद्र : २५०० आत्मधर्म : ७ :
कांई धर्मपरिणति नथी, पण ते राग वखते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जेटलुं
परिणमन छे तेटलो धर्म छे; ते धर्मनुं फळ अतीन्द्रियसुख छे, ते उपादेय छे; ने शुभराग
तो स्वर्गना भवनुं कारण छे तेथी ते उपादेय नथी.
आजना मंगळमां ‘धर्मपरिणत आत्मा’ नी वात आवी छे.
आत्मानो जेवो शुद्धस्वभाव छे तेवो पर्यायमां परिणम्यो, ते जीव धर्मपरिणत
स्वभाववाळो वर्ते छे....तेना शुद्धोपयोगनुं फळ तो अनंत अपूर्व आह्लादरूप आत्मिक
आनंद सहित केवळज्ञाननी प्राप्ति छे तेथी ईष्टफळवाळो ते शुद्धोपयोग प्रशंसनीय छे,
उपादेय छे; ने रागपरिणति तो अनिष्ट छे, हेय छे.
जे शुभराग छे ते शुद्धोपयोगरूप धर्मपरिणतिथी विरूद्ध छे; ते शुभरागरूप
विरोधी शक्ति वगरनो जे शुद्धोपयोगधर्म छे ते साक्षात् मोक्षनुं कारण छे.
अने, धर्मपरिणति सहित होवा छतां ते जीव जो शुभराग सहित वर्ते तो,
मोक्षने साधवारूप स्वकार्यने ते करी शकतो नथी पण ते रागथी तो दुःखदाह जेवो
स्वर्गनो भव थाय छे.–जो के ते वखते पण ते जेटली शुद्धपरिणतिरूप परिणम्यो छे
तेटलुं मोक्षसाधन अने तेटली शांति तो तेने वर्ते ज छे.
आत्मा ध्याता–ध्यान–ध्येय त्रणेनी एकतारूप निर्विकल्पदशारूपे परिणम्यो ते तो
साक्षात्धर्म छे, तेमां शुभरागनोय अभाव छे. अहो, शुद्धोपयोग ज धर्म छे, ने
शुभोपयोग ते धर्म नथी.–जुओ, आ वीतरागीसंतोनी वीतरागरसझरती स्पष्ट वाणी!
संतो तो शुद्धोपयोग–परिणति वडे मोक्षने साधवानुं काम अंतरमां करी रह्या छे; त्यां
वच्चे राग आवे तेने तो मोक्षमां विघ्नरूप समजीने छोडवा मांगे छे.
अहो, आत्मा तो वीतरागमूर्ति! तेनी स्वभावपरिणति ते ज धर्म छे.
धर्मात्मानी चैतन्यपरिणति तो शांत थईने अंतरमां ठरे छे, ते बहार ऊछाळा नथी
मारती; ने शुभरागपरिणति तो बहारमां ऊछाळा मारे छे, तेमां आकुळता छे. रागनुं
कार्य तो बंधन छे, ने शुद्धपरिणतिनुं कार्य तो मोक्ष छे, बंनेनां कार्य एकबीजाथी
विरुद्ध छे.
मोक्षनुं कार्य करवा माटे समर्थ तो शुद्धोपयोग छे; ने शुभराग तो मोक्षनुं
कार्य करवा असमर्थ छे. मोक्षनां कारणरूप जे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे ते राग
वगरनां छे.