: १० : आत्मधर्म : द्वि. भाद्र : २५००
परम आनंदनो पिपासु
त्यारपछी त्रीजा श्लोकमां एम कह्युं के हुं आ परमागमनी टीका करुं छुं.–कोने
माटे करुं छुं? के परम आनंदरूपी सुधारसना पिपासु भव्यजीवोना हितने माटे आ टीका
करुं छुं. जेने चैतन्यना आनंदनी ज पिपासा छे, जेने पुण्यनी के स्वर्गादि वैभवनी
अभिलाषा नथी, जेने चैतन्यना अतीन्द्रिय परमानंदनी ज अभिलाषा छे, एवा मुमुक्षु
जीवोना हितने माटे आ टीका रचाय छे. अहो जेना अंतरमां परम आनंदने माटे तृषा
छे एवा जीवोने माटे संतोए आ आनंदनुं परब खोल्युं छे. आ टीकावडे आनंदरसनुं
परब बांध्युं छे,–जेने आनंदरसनुं पान करवुं होय तेने माटे आ परब छे. अहो जीवो!
आ शास्त्रमां कहेला अतीन्द्रियज्ञान ने अतीन्द्रियसुखना भावो समजतां तमने
परमआनंदनी प्राप्ति थशे...ने ते आनंद वडे तमने तृप्ति थशे. परम आनंदनो अनुभव
प्रगटे ते ज आ शास्त्रनो हेतु छे.
हे भाई, तुं चैतन्यना आनंदनो ज पिपासु थईने सांभळजे; रागनी
अभिलाषा करीश नहि; ‘काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मन रोग. ’–आम
आत्माना आनंदनो पिपासु थईने जे जीव आ शास्त्र सांभळशे तेने अवश्य परम
आनंदनी प्राप्ति थशे.
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शास्त्रकर्ता महात्मानी ओळखाण
हवे पांच मंगळ–गाथा शरू करतां पहेलांं अमृतचंद्राचार्यदेव उपोद्घातमां
शास्त्रकार कुंदकुंदाचार्यदेवनी ओळखाण तथा महिमा प्रगट करे छे: जुओ, कुंदकुंदस्वामी
तो (अमृतचंद्रस्वामीनी पहेलांं) हजार वर्ष पहेलांं थई गयेला छे, छतां हजार वर्ष
पछी पण तेमनी अंतरंगदशाने अमृतचंद्राचार्ये ओळखी लीधी छे. तेओ कहे छे के
अहो! संसारसमुद्रनो किनारो तेमने अत्यंत निकट छे; तेमने सातिशय ज्ञानज्योति
प्रगट थई छे. जुओ, एक भावलिंगी संतनी दशाने बीजा भावलिंगीसंत ओळखी ल्ये
छे; पोताना ज्ञाननी विशेष निर्मळताने पण ओळखी ल्ये छे. आत्मानी निर्मळ
ज्ञानज्योत रागथी तद्न जुदी छे. आवी ज्ञानज्योत पोताने पण प्रगटी छे. ने
कुंदकुंदाचार्यदेवने पण हजार वर्ष पहेलांं प्रगटी हती–एम तेमना वचन उपरथी जाणी
लीधुं छे. समस्त एकान्तवादनी विद्यानो अभिनिवेश जेमने छूटी गयो छे, एटले
अज्ञाननो व्यय थयो छे,–ने शेनी उत्पत्ति थई छे? के पारमेश्वरी अनेकान्तविद्या जेमने
प्रगटी छे; जेओ चारित्रदशा प्रगट