: २२ : आत्मधर्म : द्वि. भाद्र : २५००
वस्तुथी ते जुदां नथी; केमके द्रव्यथी–क्षेत्रथी–काळथी के भावथी वस्तु अने तेनां
परिणाम जुदां नथी. (–वस्तुनो द्रव्यादिमिः परिणामात् पृथक् उपलभ्भ अभावात्...
प्रवचनसार गा. १० टीका.)
–वस्तुना सिद्धांतनी आ चावी बधे ठेकाणे लागू पाडीने समजतां बधा प्रश्नोनुं
समाधान थईने साचुं स्व–परनुं भेदज्ञान थाय छे. कोई पण परिणाम थया,–तो ते
परिणाम कोनां?–के वस्तुना; एटले तेनो संबंध पर साथे न रह्यो, वस्तु साथे ज रह्यो.
–आ रीते परिणाम साथे परिणामी–वस्तुने जोतां आत्मा देखाय छे ने अन्य
वस्तु साथे कर्ता–कर्मनी मिथ्याबुद्धि रहेती नथी.–वस्तुस्वरूपनी आवी ओळखाण जेणे
करी तेणे महावीर भगवानने ओळख्या, ने तेणे महावीर भगवानना २५०० मा
निर्वाण महोत्सवनी साची उजवणी पोताना आत्मामां करी.
तारा परिणामनो आश्रय तारी वस्तु ज छे, अन्य नहि; माटे पराश्रयबुद्धि छोड
ने स्वाश्रय परिणति कर. श्रेणीकनो जीव अत्यारे (नरकमां पण) क्षायिकसम्यक्त्वना
परिणामरूपे परिणमी रह्यो छे, त्यां ते क्षायिकसम्यक्त्वना परिणामनो आश्रय तेनो
आत्मा पोते छे, केवळी के श्रुतकेवळी तेनो आश्रय नथी, केवळी के श्रुतकेवळीनी नीकटता
वगर पण तेना क्षायिकपरिणाम समये समये स्व वस्तुना आश्रये थई ज रह्या छे. ते
परिणाम पर वस्तुथी जुदा छे, पण स्व वस्तुथी (द्रव्य–क्षेत्रे–काळे के भावे) जुदा नथी.
जुओ, वस्तु ने तेना परिणामने प्रदेशभेद नथी, काळभेद पण नथी. ते–ते
काळना परिणाम साथे ते समये वस्तु तन्मय छे, पण ते सिवायना बीजा आगळ–
पाछळना परिणामरूपे अत्यारे वस्तु वर्तती नथी, एटले ‘ते काळे तन्मय’ कहेल छे.
(प्रव. गाथा ८)
वस्तु पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायमां रहेली छे; उत्पाद–व्यय ध्रुवतारूपे तेनुं
अस्तित्व छे. वस्तुनुं सत्पणुं पोताना उत्पाद–व्यय–ध्रुवथी के द्रव्य–गुण–पर्यायथी जुदुं
नथी. ते–ते समयना द्रव्य–गुण–पर्याय, के उत्पाद–व्यय–ध्रुवता, बधुंय वस्तु ज छे, एक
ज वस्तुमां ते बधा स्वभावो सत्पणे समाई जाय छे, आवो गंभीर अनेकांतमय
वस्तुस्वभाव छे; ते महावीरशासनमां प्रकाश्यो छे.
जय महावीर