परिग्रहनुं परिमाण करवुं जोईए. खेतर–घर–धन–धान्य स्त्री आदि संपत्ति ममत्व
वधारनारी छे, तथा तेमां त्रस–स्थावर अनेक जीवोनी हिंसा थाय छे, माटे संतोषने
सिद्ध करवा अने अहिंसानुं पालन करवा तुं परिग्रहनी ममता घटाडीने तेनी मर्यादानो
नियम कर. लोभमां आकुळता छे, ने संतोषमां सुख छे. संतोषवान जीव जे पदार्थने
चाहे छे ते त्रणलोकमां गमे त्यां होय तोपण तेने प्राप्त थाय छे. जेम मांगनारने कदी
अधिकधन मळतुं नथी, (–भिखारीने तो शुं मळे!) तेम लोभ वडे अधिक द्रव्यनी ईच्छा
करनारने तेनी प्राप्ति थती नथी. निस्पृह जीवोने तो वगर मांग्ये धनना ढगला थई
जाय छे, तेम संतोष धारण करनारने धन वगेरे पुण्ययोगे स्वयमेव आवी जाय छे.
पुण्यना उदय–अनुसार लक्ष्मी आवे–जाय छे; माटे हे जीव! तुं लोभ–तृष्णा छोडने
संतोषरूप अमृतने धारण कर. तथा शक्तिअनुसार शुभकार्य कर. लक्ष्मी पुण्यथी आवे
छे, वगर पुण्ये ईच्छा करवाथी ते आवी जती नथी. चैतन्यनी निजसंपदा जाणीने
बहारनी संपदानो मोह जेणे छोड्यो छे एवा धर्मात्माने ज आ लोकमां तीर्थंकर चक्रवर्ती
के ईन्द्रपदनी विभूति मळे छे. जे बुद्धिमान श्रावक परिग्रहनुं थोडुं परिमाण करे छे तेनी
परीक्षा करवा माटे घणी लक्ष्मी सामेथी तेना घरे आवे छे. कदाचित् सूर्यमांथी ठंडक मळे
तोपण ममतारूप परिग्रहमांथी जीवने कदी शांति मळती नथी. जेम पशुओ नग्न रहेवा
छतां ममत्वरूप परिग्रहना त्याग वगर तेओ शांति के पुण्य पामता नथी, तेम जेने
परिग्रहनी मर्यादानो कोई नियम नथी एवो धर्मरहित जीव शांति के पुण्य पामतो नथी;
परिग्रहनी तीव्र मूर्छाथी ते पाप बांधीने दुर्गतिमां रखडे छे. धर्मना बगीचाने खाई
जनार विषायसक्त मनरूपी हाथी, नियम रूप अंकुश वडे वशमां रहे छे. माटे हे जीव!
तुं संतोषवडे परिग्रह–परिमाणनो नियम कर.