धर्मनो के पुण्य–पापनो विवेक रहेतो नथी, गुण–अवगुणने ते जाणतो नथी; लोभवश
ते क््यारेक गुणीजननो पण अनादर, ने दुर्गणी जीवोनो आदर करे छे, देश–परदेश भमे
छे, माया–कपट करे छे. लोभीपुरुषनी आशा आखा संसारमां एवी फेलाई जाय छे के
जगतनुं बधुं धन मळे तोपण तेनो लोभ शांत थाय नहीं.
एवा धननी ममताने धिक्कार हो. हे जीव! तुं धननो लोभ करवा करतां धर्म
प्रभावना–अर्थे तेनुं दान कर....ए ज उत्तम मार्ग छे. दान वगरनुं गृहस्थपणुं तो
परिग्रहना भारथी दुःख ज देनारुं छे. लोभ तो पापने वधारनार होवाथी निंद्य छे, ने
दानादिक शुभकार्य श्रावकने माटे प्रशंसनीय छे. माटे हे श्रावकोत्तम! तुं सम्यक्त्व
उपरांत व्रतोने पण धारण कर. सर्वसंगत्यागी मुनिपणुं न थई शके त्यां सुधी
देशत्यागरूप व्रत तो जरूर धारण कर.
सद्गुणी स्त्री हती. स्त्री–संबंधी परिग्रह–परिमाणमां तेने एकमात्र सुलोचना सिवाय
अन्य बधी स्त्रीओनो त्याग हतो.
तेणे विद्याधरीनुं उत्तम रूप धारण करीने जयकुमारने खूब ललचाव्यो, अने हावभाव–
विलास कर्या, ने पोतानी साथे क्रीडा करवा जयकुमारने कह्युं.
आ तने शोभतुं नथी. मारे एकपत्नीव्रत छे एटले सुलोचना–स्त्री सिवाय अन्य बधी
स्त्रीओनो मारे त्याग छे. हे देवी! तुं पण विषयवासनाना भूंडा परिणामने छोड....ने
शीलवंती थईने, परपुरुष साथे रमणनी अभिलाषा छोड.–आम कहीने जयकुमार तो
हृदयमां तीर्थंकर भगवंतोने याद करीने ध्यानमां उभा रह्या. देवे अनेक उपायो करवा