: ३२ : आत्मधर्म : द्वि. भाद्र : २५००
पहेलांं हुं एकलो ज दुःखरूपे परिणमतो हतो; हवे अत्यारे हुं एकलो ज मारा
स्वभावथी सुखरूपे परिणमी रह्यो छुं.
–आ रीते बंधमार्गमां के मोक्षमार्गमां आत्मा एकलो ज छे. आम आत्माना
एकत्वने जाणीने, पोताना एकत्वनी भावनामां तत्पर थयेला जीवने, परद्रव्यनो जराय
संपर्क न रहेवाथी शुद्धता होय छे, तेमज कर्ता–कर्म–साधन–फळ ए बधा भावोने एक
अभेद आत्मारूपे ज भावतो–अनुभवतो होवाथी, ते पर्यायो वडे खंडित थतो नथी
एटले सुविशुद्ध होय छे....आ रीते तेणे पोताना आत्माने परथी विविक्त कर्यो छे ने
स्वतत्त्वना एकत्वमां जोड्यो छे.–आ ज शुद्धनय छे, आ ज शुद्धात्मानी उपलब्धि छे,
आ ज निर्वाणनो मार्ग छे...आ ज महा अतीन्द्रियसुख छे.
“महावीर–परिवार” (छ बोलनुं संकल्प–पत्रक)
महावीरभगवानना २५०० मा निर्वाणमहोत्सवमां हुं–
* हंमेशांं जिनमंदिरे जईश. (–एक माईल सुधीमां होय त्यां)
* आत्महितना लक्षे हंमेशां अडधीकलाक धार्मिकसाहित्य वांचीश.
* जैनमार्गना ज साचा देव–गुरु–शास्त्रनुं सेवन करीश.
* रात्रे खोराक खाईश नहि. (पाणीनो अपवाद)
* अळगण पाणी पीश नहीं. * लौकिक सिनेमा जोईश नहीं.
आ संकल्प–पत्रक लखीने तुरत मोकली आपो:
संपादक–आत्मधर्म, सोनगढ ()
अहो, चैतन्यतत्त्व आ जगतमां सर्वोत्कृष्ट सुंदर वस्तु छे.
चैतन्यतत्त्वनी सुंदरता ज्यां अनुभवाय छे त्यां जगतनो कोई पदार्थ सुंदर
लागतो नथी, एटले क््यांय सुखबुद्धि थती नथी; सर्वत्र उदासीनता रहे छे, ने चैतन्यमां
ज परम प्रेम रहे छे. अहो....धर्मीनी आवी शांतदशा धन्य छे आ सहजदशा आनंदरूप
छे. तेमां वीरनाथप्रभुनो साक्षात्कार छे.