Atmadharma magazine - Ank 371
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: द्वि. भाद्र : २५०० आत्मधर्म : ३३ :
आत्मअनुभूतिनो मार्ग
विकल्पोना वमळने दूर करीने, चैतन्यसमुद्र भगवान आत्मा
पोते पोतामां मग्न थतां ते आस्रवोरूपी वहाणनी पक्कड छोडी दे छे,
एटले आस्रवोथी पोताने भिन्न अनुभवतो थको ते आत्मा पोते
पोतामां मग्न थाय छे...धर्मात्मानी आवी दशा समजावीने
आचार्यदेवे अनुभूतिनो मार्ग खुल्लो कर्यो छे.
[समयसार गाथा ७३ ना प्रवचनमांथी]

समयसारनी ३८ मी गाथामां धर्मात्माना स्वरूपसंचेतननुं वर्णन कर्युं छे. आ
७३ मी गाथामां पण, शिष्य केवो अनुभव करे छे तेनुं वर्णन छे. केवा आत्माना
अनुभवथी जीव आस्रवोने छोडे छे ते बताव्युं छे. चैतन्यस्वरूप आत्मानो निर्णय
करीने तेना अनुभववडे क्रोधादि आस्रवोनो अभाव थाय छे. धर्मी पोताना
चैतन्यस्वरूप आत्माने केवो अनुभवे छे? प्रथम तो ‘हुं एक छुं’ एम एकपणे पोताने
सदा अनुभवे छे. अनादि–अनंत सदाय प्रत्यक्ष–अखंड–अनंत चिन्मात्रज्योतिरूप
विज्ञानघनस्वभावपणे हुं एक छुं. आवा एकत्वस्वभावनी अनुभूतिवडे हुं शुद्ध छुं.
एकत्वनी अनुभूतिमां कर्ता–कर्म वगेरे कारकोना भेदनी प्रक्रिया नथी, हुं कर्ता, आ मारुं
कर्म, आ साधन–एवा कारकोना भेद–विकल्पो शुद्ध अनुभूतिस्वरूप आत्मामां नथी.
आवा शुद्ध आत्मानी अनुभूतिवडे ज आत्मा आस्रवोने छोडीने पोते पोतामां ठरे छे.
आस्रवोने छोडवानो ने पोतामां ठरवानो एक ज काळ छे.
हुं कर्ता ने मारी पर्याय मारुं कार्य–एवा भेदनो विकल्प पण जेमां समातो नथी,
त्यां हुं रागने करुं ने शरीरने करुं–ए वात तो क््यां रही? अहा, आत्मानी