: द्वि. भाद्र : २५०० आत्मधर्म : ३५ :
स्वामीत्व माने छे ते जीवने अनंता परभावोनुं ममत्व छे; भले बहारथी त्यागी होय,
पण अज्ञानचेतनामां तेने अनंता परभावोनुं स्वामीत्व पड्युं छे, परभावना
स्वामीपणे ज ते पोताने अनुभवे छे. धर्मी पोताने चेतनास्वरूपे अनुभवे छे, ते
अनुभवमां रागनो एक कणियो पण नथी, माटे धर्मीने परभावनुं स्वामीत्व नथी, ते
अत्यंत ममतारहित छे.
हजी आवा आत्मानो निर्णय पण जे न करे ते तेनो अनुभव क््यांथी करे?
आस्रवोथी भिन्न आत्मस्वरूपनो निश्चय पण जे न करे ते आस्रवोनुं कर्तृत्व केम छोडे?
ने जेने रागादि आस्रवोनुं कर्तृत्व होय तेने तेनुं स्वामीत्व होय, एटले तेने निर्ममत्व
दशा तो क्यांथी होय? धर्मी कहे छे के मारी चेतनानो स्वभाव ज त्रणेकाळ एवो छे के
तेमां रागनो कणियो पण नथी; रागना एक कणियानुं पण स्वामीत्व मारी चेतनामां
त्रणकाळमां नथी. आवी अनुभूति ते धर्मात्मानी अनुभूति छे; आवी अनुभूतिवडे
धर्मात्मा साचा स्वरूपे ओळखाय छे.
जीवनो स्वभाव ज्ञान–शांति ने आनंद छे, दुःख तेनो स्वभाव नथी. स्वभावने
भूलीने, रागमां तन्मयताथी दुःखरूपे परिणमे छे ते आस्रव छे. आत्माए अज्ञानथी
आ आस्रवोने पकड्या छे, तेथी ते दुःखी छे; रागथी भिन्न ज्ञानस्वभावने जाणीने तेमां
परिणमतां ते जीव आस्रवोने छोडी दे छे, ने पोताना निर्विकल्पस्वभावनी परमशांतिने
वेदे छे. चैतन्यसमुद्र पोते पोतामां ठरतां परम शांतरसने वेदे छे.
आवी दशारूपे जे जीव परिणम्यो ते धर्मी छे. तेनी धर्मदशा अने तेनुं द्रव्य बंने
सत् छे. एटले आ पर्यायनो कर्ता थईने हुं तेने करुं–एवा भेदना विकल्प पण तेमां
नथी. अंतरनो अनुभव विकल्पनी क्रियाथी पार छे. ज्ञानस्वभाव हुं छुं एम नक्की
करनारी पर्याय पण विकल्पथी छूटी पडीने शुद्धस्वभाव साथे एकतापणे परिणमी छे,
एटले शुद्ध थई छे. पर्याय पोते शुद्ध थईने शुद्धस्वभावनो स्वीकार करे छे.
शुद्धस्वभावनो स्वीकार करे ने पर्यायमां एकली अशुद्धता रहे–एम बने नहि. पर्यायमां
जेने शुद्धता नथी तेणे शुद्धस्वभावनो स्वीकार ज कर्यो नथी. शुद्धता वगर
शुद्धस्वभावनो स्वीकार कर्यो कोणे? रागना विकल्पमां कांई एवी ताकात नथी के
शुद्धस्वभावने स्वीकारी शके.
आत्मा तो ज्ञानस्वभाव छे, ते ईष्ट छे–आनंदरूप छे; अने राग–द्वेष–मोह तो
ज्ञानथी विरुद्ध एवा अनीष्ट छे, ते तो अरि छे; ते अरिने ज्ञानवडे हणवाथी आत्मा
अरिहंत थाय छे; राग के जे अरि छे तेने अज्ञानी धर्मनुं साधन माने छे, तो ते अरिने
क््यांथी हणी शके?