Atmadharma magazine - Ank 371
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: ३६ : आत्मधर्म : द्वि. भाद्र : २५००
राग–पछी अशुभ हो के शुभ हो,–तेने जे धर्मनुं साधन माने छे ते रागने हणवानुं
मानतो नथी एटले ते अरिहंतने ज मानतो नथी. जे अरिहंतने माने ते रागने आदरे
नहीं. धर्मीने रागादि साथे स्व–स्वामीपणुं नथी, तेनी साथे कर्ता–कर्मपणुं नथी; एने तो
ज्ञानस्वभावमां ज स्व–स्वामीपणुं समाय छे.
भाई, अरिहंतदेवना मार्गमां आवीने एकवार निर्णय तो कर के तारुं स्व कोण
छे ने अरि कोण छे? रागादिभावो ते तारा स्व नथी पण अरि छे; रागथी पार ज्ञाना–
नंदस्वभाव ज तारुं स्व छे. आम रागादि विभावोथी भिन्न एवा चेतनस्वभावरूपे ज
पोताने अनुभवतो धर्मी जीव रागादि विकल्पना स्वामीपणे कदी परिणमतो नथी,
रागादिथी जुदो जुदो रहीने, आनंदघनपणे ज सदा परिणमे छे–तेणे आस्रवोने छोड्या,
ने संवर–दशारूपे पोते पोतामां ठर्यो.–अहा, आवा आत्मानी समजणनुं फळ बहु मोटुं
छे. आत्मानो स्वभाव मोटो छे, तेना अनुभवनुं फळ पण मोटुं ज होय ने! सादि
अनंतकाळनुं अनंत वीतरागीसुख आत्माना अनुभवना फळमां मळे छे.
ज्ञान अने रागनी भिन्नताने अनुभवे त्यारे ज जीवने साची निर्ममता थाय.
रागना एक कणियाने पण जे ज्ञानना कार्य तरीके स्वीकारे तेने समस्त रागनुं अने
रागना फळनुं ममत्व ऊभुं छे. धर्मीए पोतानी चेतनाने स्वसंवेदनवडे रागथी तद्न
जुदी पाडी दीधी छे, मारी चेतनामां रागनी छाया पण नथी, रागना अंशने पण
ज्ञानमां ते स्वीकारता नथी, माटे तेने सर्वत्र निर्ममत्व छे. बधा परभावोमांथी ममत्व
छोडीने, पोते पोताना ज्ञानस्वभावमांज स्थिर थाय छे, तेमां निर्विकल्पज्ञाननी अपूर्व
अनुभूति छे, ते धर्म छे.
चैतन्यस्वभावथी पूरो, ने रागादि परभावोथी रहित एवा आत्माने धर्मी
स्वानुभवमां अनुभवे छे. आवो अनुभव कर्ये ज आ भवचक्रना आंटा मटे तेम छे.
बापु! तुं ज्ञानस्वभावे पूरो आत्मा, ने तने आ भवना आंटा शोभता नथी;
आनंदस्वरूप आत्मा दुःखमां रखडे ए तने शोभतुं नथी. स्वसंवेदनथी आनंदरूपे
परिणमवुं–ए ज तने शोभे छे. चैतन्यदीवडा ज्यां झगमगे छे त्यां तारुं घर छे; रागना
अंधारामां तारो वास नथी. तुं तो चैतन्यवस्तु छो; तारो वास चैतन्यमां होय के रागमां
होय? चैतन्यनो वास रागमां न होय. आम परिपूर्ण ज्ञानदर्शनस्वरूपे पोते पोताने
अनुभवे छे ते जीव धर्मी छे.