वाह रे वाह! अरिहंतोनो मार्ग!!
एटले सम्यग्दर्शनादि थाय ज.
तमारा जेवा ज चेतनस्वरूप मारो आत्मा छे; मारा द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेने हुं ज्यां
चेतनस्वरूपे ज देखुं छुं त्यां हवे मोहने मारामां रहेवानुं कोई स्थान ज न रह्युं; चेतन–
भावना आश्रये मोह केम रही शके? एटले चेतनभावरूपे पोताना आत्माने
अनुभवमां लेतां ज मोह निराश्रय थईने नाश पामे छे; केमके मोहने रहेवानो आश्रय
तो मिथ्यात्व अने राग–द्वेष हता, पण कांई चेतनभाव तेनो आश्रय नथी.
चेतनभावमां तो वीतरागता ने परम आनंद छे, तेमां मोह रही शकतो नथी. जुओ,
सम्यग्दर्शन थाय त्यां आवो आत्मा स्पष्ट वेदनमां आवी जाय छे.
ज्ञानतत्त्व जाणतां आत्माना परिपूर्ण शुद्धस्वरूपनुं ज्ञान थई जाय छे. ‘अर्हंत’ एटले
पूज्य; आत्मानुं आवुं शुद्धज्ञानस्वरूप छे ते पूज्य छे, अर्हंतना स्वरूपमां अने तेना
स्वरूपमां कांई फेर नथी.
थई जाय छे. जेणे आवी दशा प्रगट करी तेणे पोताना आत्मामां मोक्षनो मंगल उत्सव
ऊजव्यो; साचो निर्वाण–महोत्सव तेणे महा आनंदपूर्वक शरू कर्यो.
ते जाणतो निजात्मने समकित ल्ये आनंदथी.