चैतन्यभाव परिपूर्ण परिणमी रह्यो छे.–आवा मोटा भगवानने स्वीकारनारुं तारुं ज्ञान
पण केवडुं मोटुं छे?–ए ज्ञान पण रागथी छूटुं पडीने अतीन्द्रिय थई जाय छे, ने
सर्वज्ञस्वभावने पोतामां स्वीकारी ल्ये छे. ए ज्ञान तो अरिहंतोनी पंक्तिमां बेठुं,
रागथी छूटुं पडीने मोक्षना मारगमां चालवा मांड्युं.
गई; एने हवे अनंत भवनी वात केवी? अनंतभव होवानी शंका जेने वर्ते छे तेना
ज्ञानमां सर्वज्ञ बेठा नथी; तेना ज्ञानमां (–एटले के अज्ञानमां) तो भव बेठा छे,
भववगरना मोक्षस्वरूप भगवान तेना ज्ञानमां आव्या नथी.–अहो, आमां तो
अंतर्मुखद्रष्टिनी घणी गंभीरता छे.
गाथा ८० मां) ते भूतार्थस्वभाव केवो छे ते अरिहंतदेवना द्रष्टांतथी समजाव्युं छे: जेम
अरिहंतभगवान सर्वप्रकारे एटले के द्रव्यथी गुणथी ने पर्यायथी शुद्धचेतनरूप छे, तेमां
क््यांय रागनो संबंध नथी; तेम मारा आत्मामां पण चेतनपणे नित्य टकतुं जे
अन्वयपणुं छे ते द्रव्य छे, चैतन्य एवुं जे मारुं विशेषण छे ते गुण छे, ने
चैतन्यप्रवाहमां क्षणे क्षणे थती जुदीजुदी चेतनपरिणति ते मारी पर्याय छे; आम द्रव्य –
गुण–पर्याय त्रणेय एक चैतन्यभावरूप ज छे. आ रीते त्रणेने एक चैतन्यस्वभावमां
ज समाडीने, भेद वगरना अभेद आत्माने द्रष्टिमां लेवो ते भूतार्थद्रष्टि छे, ने ते ज
सम्यग्दर्शन छे. समयसारनी ११ मी गाथा के प्रवचनसारनी ८० मी गाथा,–बंनेमां
सम्यग्दर्शननो मूळभूत उपाय एक ज बताव्यो छे, बंने गाथा एक कुंदकुंदस्वामीनी ज
लखेली छे, ने बंनेना टीकाकार पण एक अमृतचंद्रस्वामी ज छे; आचार्यभगवंतोए
सम्यग्दर्शनना गंभीर रहस्यो खुल्ला करीने समजाव्या छे; बधानुं तात्पर्य एक ज छे.
अभेदरूप एक आत्माने द्रष्टिमां लेवो ते सम्यग्दर्शन छे.–आनुं ज नाम भूतार्थनो आश्रय