अरिहंतोना मार्गमां सम्यग्दर्शननी रीत बतावीने भव्यजीवोने न्याल करी दीधा छे.
मुमुक्षुजीव प्रथम तो बीजे बधेथी छूटीने, वीतराग जिनशासनमां आव्यो, ने
आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे सर्वथा राग वगरनां, ने शुद्ध चेतनमय छे–एम
ओळखीने पोताना आत्मानुं तेनी साथे मिलान कर्युं; पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायने
चेतनलक्षणथी जाणीने रागथी तो जुदा पाड्या; हवे पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायना भेदमां
पण ऊभो नथी रहेतो, पण चेतनपर्यायने द्रव्यमां ज समावीने अभेद करे छे, जुदी
नथी राखतो; ए ज रीते गुणने पण द्रव्यमां ज अंतर्लीन करीने, द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणेथी अभेदस्वरूप आत्मामां उपयोगने एकाग्र करीने निष्कंपपणे अनुभव करे छे–
ए ज क्षणे सम्यग्दर्शन थाय छे ने मोहनो नाश थाय छे.
आवे. राग तो चैतन्यनी अनुभूतिथी बहार रही गयो; एक पर्यायमां स्वभाव ने
परभाव जुदा पडी गया; पर्यायमां जे चैतनभाव छे तेने तो चेतन्यद्रव्य साथे अभेद
कर्यो; ने रागादि परभावोने चैतन्यथी भिन्न जाण्या.–आवा उपायथी आत्मानी
अनुभूति थतां अरिहंत जेवा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद पोतामां पण आवे छे. आ तो
कोई अद्भुत अलौकिक दशा छे. अरिहंत जेवो आत्मा ध्येयमां लेतां अरिहंतदेव जेवी
दशा अंशे पोताने प्रगटी, एटले पोते हवे अरिहंतनो नंदन थयो, भगवाननो
पुत्र थयो, तीर्थंकरोना परिवारनो थईने तेमना मार्गमां भळ्यो.–आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
अटकी जाय छे, ने निष्क्रिय एवा चैतन्यभाव प्रगटे छे, ते चैतन्यभाव आत्माना
अनंतगुणना रसथी भरेलो छे. अहा! द्रव्यपर्यायना भेद पण जेमां नथी, एवी
अनुभूतिमां