Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०० आत्मधर्म : १५ :
छे; आ ज शुद्धनय छे, ने आ ज चैतन्य चिंतामणिनी प्राप्ति छे. वाह रे वाह!
अरिहंतोना मार्गमां सम्यग्दर्शननी रीत बतावीने भव्यजीवोने न्याल करी दीधा छे.
सम्यग्दर्शनना अनुभवमां द्रव्य–गुण–पर्यायना भेदनी वासना रहेती नथी, भेद
अलोप थई जाय छे ने एक सर्वोपरी चैतन्यतत्त्व प्रसिद्ध थाय छे.
जुओ, सम्यग्दर्शन पामवा माटे मुमुक्षुजीव केवो उपाय करे छे तेनुं आ वर्णन छे.
मुमुक्षुजीव प्रथम तो बीजे बधेथी छूटीने, वीतराग जिनशासनमां आव्यो, ने
अरिहंत–सर्वज्ञपरमात्माने पोताना आराध्यदेव तरीके स्वीकार्या. हवे ते अरिहंतदेवना
आत्माना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणे सर्वथा राग वगरनां, ने शुद्ध चेतनमय छे–एम
ओळखीने पोताना आत्मानुं तेनी साथे मिलान कर्युं; पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायने
चेतनलक्षणथी जाणीने रागथी तो जुदा पाड्या; हवे पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायना भेदमां
पण ऊभो नथी रहेतो, पण चेतनपर्यायने द्रव्यमां ज समावीने अभेद करे छे, जुदी
नथी राखतो; ए ज रीते गुणने पण द्रव्यमां ज अंतर्लीन करीने, द्रव्य–गुण–पर्याय
त्रणेथी अभेदस्वरूप आत्मामां उपयोगने एकाग्र करीने निष्कंपपणे अनुभव करे छे–
ए ज क्षणे सम्यग्दर्शन थाय छे ने मोहनो नाश थाय छे.
जुओ, सम्यग्द्रष्टि पर्यायने तथा गुणने आत्मद्रव्यमां अभेद करीने अनुभवे छे,
त्यां जे पर्यायने अंतर्लीन करी छे ते शुद्ध छे, चैतन्यपरिणतिरूप छे, तेमां रागपर्याय न
आवे. राग तो चैतन्यनी अनुभूतिथी बहार रही गयो; एक पर्यायमां स्वभाव ने
परभाव जुदा पडी गया; पर्यायमां जे चैतनभाव छे तेने तो चेतन्यद्रव्य साथे अभेद
कर्यो; ने रागादि परभावोने चैतन्यथी भिन्न जाण्या.–आवा उपायथी आत्मानी
अनुभूति थतां अरिहंत जेवा अतीन्द्रिय आनंदनो स्वाद पोतामां पण आवे छे. आ तो
कोई अद्भुत अलौकिक दशा छे. अरिहंत जेवो आत्मा ध्येयमां लेतां अरिहंतदेव जेवी
दशा अंशे पोताने प्रगटी, एटले पोते हवे अरिहंतनो नंदन थयो, भगवाननो
पुत्र थयो, तीर्थंकरोना परिवारनो थईने तेमना मार्गमां भळ्‌यो.–आनुं नाम सम्यग्दर्शन छे.
सम्यग्दर्शनना ध्येयमां ‘आ द्रव्य’ एवो भेद पण नथी; आ द्रव्य, आ गुण, आ
पर्याय–एवा भेदो अस्त थईने एक सर्वोपरी चेतनतत्त्वने जाणतावेंत विकल्पोनी क्रिया
अटकी जाय छे, ने निष्क्रिय एवा चैतन्यभाव प्रगटे छे, ते चैतन्यभाव आत्माना
अनंतगुणना रसथी भरेलो छे. अहा! द्रव्यपर्यायना भेद पण जेमां नथी, एवी
अनुभूतिमां