Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : आसो : २५००
द्रव्य–गुण–निर्मळपर्याय बधुं अभेदपणे स्वादमां आवी जाय छे, ते सम्यग्ज्ञान छे; ते
सम्यग्दर्शन छे, ते शांति छे, ते समयसार छे; धर्मने माटे जे कांई कहो ते बधुं तेमां
समाय छे, केमके तेमां अनंतगुणनो रस एकरसपणे स्वादमां आवे छे. अनंतगुणनुं
निर्मळपरिणमन सम्यग्दर्शन थतां ज उल्लसे छे. पण ‘आ द्रव्य कर्ता, निर्मळ परिणाम
कार्य, ने परिणमन ते क्रिया’ एवा त्रण भेदना विकल्पनुं वेदन ज्ञानमां आवतुं नथी;
ज्ञाननो स्वाद विकल्पथी छूटो पडी गयो छे; एटले कर्ता–कर्म–क्रियाना भेदना विकल्परूप
क्रिया ज्ञानमां रहेती नथी, ते अपेक्षाए चिन्मात्रभावने निष्क्रिय कह्यो छे,–पण त्यां
परिणति छे ज नहि–एवो निष्क्रियनो अर्थ नथी.
आत्माना साचा स्वरूपनो निश्चय करवा माटे पहेलांं उदाहरणरूपे अरिहंतदेवने
लक्षमां लीधा; पण ज्ञानमां अरिहंत जेवा आत्मस्वरूपनो निर्णय करीने पछी अनुभव
करवाना टाणे अरिहंत उपर लक्ष नथी रहेतुं पण उपयोग अंदर पोताना
चैतन्यस्वभावमां झूकी जाय छे, ने ते स्वभावना कोई परम अद्भुत महिमाने जाणतां
ज ज्ञान तेमां एवुं लीन थई जाय छे के द्रव्य–गुण–पर्यायना के कर्ता–कर्म–क्रियाना भेदना
विकल्पो पण रहेता नथी, निर्विकल्पपणे चेतना पोताना स्वरूपनुं वेदन करे छे, ने ते ज
वखते अतीन्द्रिय आनंदना वेदन सहित सम्यग्दर्शन ने सम्यग्ज्ञान थाय छे.–जेणे आवुं
कर्युं ते जीवे चेतनभाववडे भगवाननी साची भक्ति करी; अज्ञानीए ज्ञान वगर
एकला रागवडे भगवाननी भक्ति तो करी, पण तेथी तेने भवनो अंत न आव्यो; ने
रागथी भिन्न पडीने ज्ञानचेतना वडे जेणे एकवार पण भगवानने भज्या तेना
भवनो अंत आवी गयो. वाह रे वाह!
(८) आठ कर्मने (०) शून्य करीने सिद्धपद
पमाय एवो उपाय आचार्यभगवाने आ ‘८०’ मी गाथामां प्रसिद्ध कर्यो छे.
मोहना नाशना ने मोक्षनी प्राप्तिना अफर मंत्रो जगतने आप्या छे.
अहा, एक आत्मामां द्रव्य–गुण– पर्याय एवा त्रण प्रकार होवा छतां ते त्रणेने
एकमां समावीने एकरूप आत्मानी अनुभूति करवी,–आवो अपूर्व अनेकान्तस्वभाव,
जैनशासन सिवाय बीजुं कोई बतावी शके नहि, ने सम्यग्द्रष्टि जैन सिवाय बीजाने ते
समजाय नहि. आ समजे त्यां सम्यग्दर्शन थाय ने मोक्षमार्ग खुली जाय.–आवो अपूर्व
आनंदमय मार्ग जैन–संतोए जगतने देखाडयो छे.
ते मार्ग समजीने तेमा चालवुं ते साचो निर्वाण – महोत्सव छे.