: आसो : २५०० आत्मधर्म : १९ :
* जिनागमां शुं कह्युं छे? *
जुओ, सर्वज्ञदेवे कहेला आगमनो अभ्यास करवानुं कह्युं तेमां घणा भावो भर्या
छे. प्रथम तो अभ्यास करनारने सर्वज्ञनी प्रतीति छे; ते सर्वज्ञना कहेला आगमनो
अभ्यास एटले ते आगममां जे वस्तुस्वरूप कह्युं छे तेनुं ज्ञान; शुं कह्युं छे?
समस्त जिनागमोए वीतरागताने ज तात्पर्य कह्युं छे.
वीतरागता स्वद्रव्यना ज आश्रये थाय छे.
स्वद्रव्यनो आश्रय तेना सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान वडे ज थाय छे.
जिनशास्त्रोमां क््यांय पण राग–द्वेषने तात्पर्य कह्युं नथी;
परद्रव्यना आश्रये जीवनुं कल्याण थवानुं कह्युं नथी.
श्री जिनवाणी कहे छे के आत्मा ज्ञानस्वरूप छे; तेना द्रव्य–गुण–पर्याय त्रणेय
ज्ञानस्वरूपथी रचायेलां छे; तेमां रागादिनी के जडनी भेळसेळ नथी; आवा ज्ञानस्वरूप
आत्माने जाणीने, श्रद्धा करीने, तेनी अनुभूति ते मोक्षमार्ग छे. एटले स्वभाव तरफ
ढळवानुं साचुं तात्पर्य समजीने जे जीव अंतर्मुख थाय छे तेणे ज शास्त्रना साचा
भावोनो अभ्यास कर्यो छे, ने तेनो मोह जरूर नष्ट थाय छे. पण जो शास्त्र तरफना
शुभरागने ज सर्वस्व समजीने, तेमां ज अटकीने ऊभो रही जाय तो ते जीवे शास्त्रना
भावनो अभ्यास नथी कर्यो, पण पोताना रागनो ज अभ्यास कर्यो छे. शास्त्रे तो एम
कह्युं हतुं के तुं रागथी भिन्न एवा तारा चैतन्यस्वरूपने देख, चैतन्यना स्वसंवेदनवडे
प्रत्यक्ष ज्ञानथी आत्माने जाण,–तो तारो मोह नाश थशे. हवे एम करवाने बदले शास्त्र
तरफना राग–विकल्पमां ज लाभ मानीने तेमां ज जे अटकी जाय तेणे तो शास्त्र–
आज्ञाथी विरुद्ध क्रीडा करी छे. जे शास्त्र–आज्ञाअनुसार वस्तुस्वरूप लक्षमां लईने
भावश्रुतज्ञानथी सम्यक् क्रीडा (उल्लासथी वारंवार तेनुं मनन) करे तेने तो पदे–पदे
पोतानुं स्वरूप रागथी भिन्न, चेतनमय भासे छे तथा आनंदना फुवारा ऊछळे छे; ने
मोहनो नाश थई जाय छे.
वाह! जिनशास्त्रनो अभ्यास केम कराय? ने तेना फळमां तरत ज केवो आनंद
आवे? ते आचार्यदेवे अहीं बताव्युं छे; आमां स्वसन्मुख भावश्रुतना अभ्यासनी
अद्भुत वात छे.
भगवान सर्वज्ञदेवे जे प्रत्यक्ष जाण्युं ते ज जिनागममां कह्युं छे, तेथी ते सर्व
प्रकारे अबाधित छे. एवा अबाधित प्रमाणरूप जिनागमने प्राप्त करीने मुमुक्षु शुं