Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०० आत्मधर्म : २१ :
छे.’ जुओ, ‘प्रथम भूमिकामां गमन’ एटले शुं?–के अनादिथी अज्ञान भूमिकामां जे
कर्युं ते रीते नहि, पण तेनाथी जुदी रीते धर्मनी शरूआत करवा जे तैयार थयो छे ते
जीव धर्मनी शरूआतमां प्रथम तो सम्यग्ज्ञाननो अभ्यास करे छे; तेने जिनवाणीमां
क्रीडा करवाथी मांडीने मोहनो क्षय थतां सुधीमां वच्चे शुं–शुं थाय छे ते बधुं आचार्यदेवे
अलौकिक रीते बतावीने, अनुभवनो उपाय स्पष्ट देखाडयो छे. हवे ते प्रमाणे पोतानी
अंदर प्रयोग करीने प्रयत्नवडे आत्मानो साक्षात् अनुभव करवो ते मुमुक्षुनुं काम छे.
ज्यां मुमुक्षुए अनुभव करवा माटेनी ‘प्रथम भूमिका’ मां गमन कर्युं त्यां ज बीजे
बधेथी रस छूटीने, मारुं चैतन्यतत्त्व जिनागममां केवुं कह्युं छे–तेने शोधवा माटे भाव–
ज्ञानथी जिनागममां क्रीडा करे छे; आत्मा प्रत्ये परम प्रेमपूर्वक अपूर्वभावे तेनो
अभ्यास करे छे. अनादिथी जे कर्युं ते ज करे तेने ‘प्रथम’ केम कहेवाय? ‘प्रथम’ नो
अर्थ ए छे के, अनादिथी चालती आवेली अशुद्ध परिणतिथी जुदी जातनी नवी
शरूआत करे छे...जिनागमे जेवो आत्मस्वभाव कह्यो तेवो लक्षगत करीने ज्ञानने तेमां
लई जाय छे; रागवडे नहि पण भावश्रुतज्ञाननी क्रीडावडे नवी अपूर्व शरूआत करे छे,
–मुमुक्षुजीवना अंतरना प्रयत्ननी आ अपूर्व वात छे.
* मुमुक्षुने विशिष्ट स्वसंवेदन – शक्तिरूप संपदा प्रगटे छे *
मुमुक्षुजीव जेम जेम जिनवाणीमां क्रीडा करे छे–तेम तेम तेनी विशिष्ट
स्वसंवेदनशक्ति खीलती जाय छे. ‘आ मारो चैतन्यभाव छे, आ रागभावो छे ते
चैतन्यनी जातथी जुदा छे’–एम स्व–पर भावोनुं स्पष्ट भिन्नपणुं तेना वेदनमां
भासतुं जाय छे; भेदज्ञानना अभ्यासना वारंवार संस्कारथी ऊंडे–ऊंडे ऊतरतां ज्ञानमां
जे स्वसंवेदनरूप शक्ति खीलवा मांडी–तेने ‘विशिष्ट’ कही छे. विशिष्ट एटले सामान्य
जाणपणानी वात नथी, पण अंदरमां आत्मा तरफ जे ज्ञान झूकतुं जाय छे, ने रागथी
अधिक थवा मांड्युं छे, ते विशिष्ट छे. आवा विशिष्ट ज्ञानरूप स्वसंवेदनशक्ति ते
मुमुक्षुनी संपदा छे; रागने संपदा न कीधी, पण स्वसन्मुखीज्ञान ते संपदा छे. आवी
ज्ञानसंपदा प्रगट करीने...स्व–पर तत्त्वोने यथार्थस्वरूपे जाणे छे.–कई रीते जाणे छे?
पोताना आत्माने तो स्वसंवेदनप्रत्यक्ष प्रमाणवडे अनुभवगम्य करीने जाणे छे, ते
उपरांत प्रत्यक्षथी अविरुद्ध अन्य प्रमाणो (जिनागम वगेरे) द्वारा समस्त तत्त्वोने
यथार्थ स्वरूपे जाणे छे; त्यां ज्ञानमां कोई विपरीतता रहेती नथी ने मोहनो ढगलो
(–दर्शनमोह) नष्ट थई जाय छे.