Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: २२ : आत्मधर्म : आसो : २५००
प्रत्यक्षप्रमाण सहृदय जनोना हृदयने आनंदना फूवारा आपे छे
अहीं मुमुक्षुजीव ‘सहृदय’ छे, एटले संतोए कहेलुं जे द्रव्यश्रुत, तेना अभ्यास
वडे ज्ञानीओना हृदयना तळीयांने स्पर्शीने तेमना शुद्ध भावोने ते ओळखी ल्ये छे;
शब्दोमां नथी रोकाई जतो पण ज्ञानीना हृदयमां पहोंची जाय छे ने तेमणे कहेला शुद्ध
जीवादि तत्त्वोनुं स्वरूप सम्यक्परिणामवडे जाणी ल्ये छे. आवुं जाणतां ते सहृदय–
मुमुक्षुना अंतरमां आनंदनो उद्भेद थाय छे, शांतिनो फुवारो ऊछळे छे, सम्यग्ज्ञाननी
साथे ज तेने अतीन्द्रय आनंदनी अनुभूति थाय छे. ते जीव स्वसंवेदनप्रत्यक्षरूप
स्वानुभवप्रमाणथी तो पोताना आत्मानुं सम्यक्स्वरूप जाणे छे, ने तेवा प्रत्यक्षपूर्वक
परोक्षप्रमाणवडे समस्त तत्त्वोने जाणे छे. प्रत्यक्षवगरनुं एकलुं परोक्ष ते खरेखर
प्रमाण नथी.
प्रश्न: –शास्त्रना अभ्यासमां तो विकल्प छे?
उत्तर:–मुमुक्षुनुं जोर विकल्प उपर नथी; पण शास्त्र शुं कहे छे तेना उपर वलण
छे. विकल्प होय छे पण ते वखते ज्ञाननुं जोर तो विकल्पथी पार एवा शुद्ध
चैतन्यस्वभाव तरफ झुकी रह्युं छे. ‘आत्मा आनंदस्वरूप छे, ज्ञानस्वरूप छे, तेनो निर्णय
करीने तमारी पर्यायने तेमां अभेद परिणमावो’–एम शास्त्रोनी आज्ञा छे, तेथी ते
शास्त्रनो सम्यक् अभ्यास करनार मुमुक्षुने तो अंदरमां तेवा वाच्यरूप पोतानो
ज्ञानानंदस्वरूप आत्मा स्वसंवेदनमां आवतो जाय छे, ने मोहनो नाश थतो जाय छे.–आ
माटे अंदर आत्मानी लगनी लागवी जोईए. शास्त्रअभ्यासनो हेतु कांई शब्दो सामे
जोईने बेसी रहेवानो नथी, पण शास्त्रमां जेवो कह्यो तेवो पोतानो ज्ञानानंदस्वरूप
आत्मा लक्षमां लईने तेनुं स्वसंवेदन करवुं ते मुमुक्षुनो हेतु छे, ने एवुं चैतन्य–संवेदन
थतुं जाय ते ज सम्यक् शास्त्रअभ्यास छे. तेना फळमां आनंदनी प्राप्ति ने मोहनो नाश
जरूर थाय छे.–आ अपेक्षाए श्रुतना अभ्यासथी निर्जरा थवानुं पण कह्युं छे.
शास्त्रना अभ्यासमां तो विकल्प छे?
आत्माना लक्षपूर्वक ज्यां शास्त्रनो अभ्यास छे त्यां विकल्प गौण छे ने ज्ञान
मुख्य छे. ते ज्ञान, आत्माने अनुसरीने विकल्पथी जुदुं काम करे छे. विकल्प तूटता जाय छे
ने ज्ञानरसनुं घोलन वधतुं जाय छे. समयसारना त्रीजा कळशमां पण अमृतचंद्रस्वामीए
कह्युं छे–के–‘आ समयसारनी व्याख्याथी ज मारा आत्मानी परमविशुद्धि थाओ. ’ छेल्ले