निर्मोहता थाय छे; अने एवो जीव अचिरकाळमां मोक्षने पामे छे, मोक्ष पामवामां हवे
तेने दीर्घकाळ नथी लागतो.
थका चार गतिनां भयंकर दुःखोमां खदखदी रह्या छे.–अति दीर्घ–बहु लांबो काळ एवा
दुःखोमां वीती गयो.–अरे, थई गयुं ते थई गयुं;–पण हवे, आवा घोर दुःखोथी शीघ्र
छोडावनारो जिनोपदेश महाभाग्यथी मने प्राप्त थयो, ते जिनोपदेशमां चेतनलक्षणरूप
मारा स्वतत्त्वना द्रव्य–गुण–पर्याय परथी अत्यंत भिन्न बताव्या; तो हवे आवो
कल्याणकारी जिनोपदेश पामीने मारे शीघ्र ज उत्कृष्ट प्रयत्नवडे मोहने हणी नांखवो
योग्य छे.–आम द्रढ निश्चय करीने मुमुक्षुजीव अंतर्मुख उद्यमवडे, स्वकीय चैतन्यस्वरूप
द्रव्य–गुण–पर्यायोने पोतामां समावतो, अने परकीय चेतन–अचेतन समस्त पदार्थोने
पोताथी भिन्न राखतो, त्रणेकाळ चैतन्यलक्षणस्वरूपे पोताने अनुभवे छे, ते ज वखते
तेनो मोह क्षय थई जाय छे; ने अल्पकाळमां ज ते जीव आ घोर दुःखमय संसारथी
छूटीने अपूर्व आनंदमय मोक्षने प्राप्त करे छे. जुओ, आ जिनवाणीना साचा
अभ्यासनुं उत्तम फळ! मोहनो नाश ने मोक्षनी प्राप्ति–ते जिनवाणीना सम्यक् अभ्यास
द्वारा करेला भेदज्ञाननुं फळ छे.
उत्तर:– समयसारादि परमागमोमां वीतरागसंतोनी जे वाणी छे ते जिनोपदेश
सर्वज्ञपणुं जेमने प्रगट छे एवा अरिहंतदेवना स्वरूपनो पण निर्णय थई जाय छे.
अरिहंतदेवना शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायनुं यथार्थस्वरूप जेणे जाणी लीधुं तेना ज्ञानमां
अरिहंतनो कदी विरह नथी. अने, बहारमां अरिहंतदेवनी सन्मुख बेठो होवा छतां जे
जीव अंतरमां तेमना आत्मिकस्वरूपने नथी ओळखतो तेने अरिहंतदेव मळ्या नथी,
समवसरणमां पण तेने तो अरिहंतनो विरह ज छे.