Atmadharma magazine - Ank 372
(Year 31 - Vir Nirvana Samvat 2500, A.D. 1974)
(Devanagari transliteration).

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: आसो : २५०० आत्मधर्म : २७ :
जगतमां तो अरिहंतदशाने पामेला सर्वज्ञ–आत्मानुं सदाय अस्तित्व छे; तेनुं
अस्तित्व जेने भास्युं तेने तो ते भरतक्षेत्रमां होय तोपण सर्वज्ञनो विरह नथी; अने
ते सर्वज्ञनुं अस्तित्व जेने न भास्युं तेने तो (ते महाविदेहमां होय तोपण) सर्वज्ञनो
विरह ज छे. एक वस्तु घरमां पडी होय, पण जेने तेनी खबर नथी तेने तो तेनो विरह
छे; अने घरमां रहेली वस्तुनी जेने खबर छे तेने तो पोते गमे त्यां बेठो होय तोपण ते
वस्तुनो सद्भाव ज छे, विरह नथी.
अरे जीव! जैनधर्म अने वीतराग अरिहंतदेवनो उपदेश महावीर भगवाननी
परंपरामां आजे तने प्राप्त थयो, तो आ टाणे तारा ज्ञानमां सम्यक् उद्यम करीने तुं
दर्शनमोहनो नाश करीने सम्यग्दर्शन नहि पामे–तो पछी क्यारे पामीश? संसार–
दुःखथी छूटवानो अत्यारे ज उत्तम अवसर छे. मोहने छेदनारो तीक्ष्ण असिधार जेवो
वीतरागमार्गनो उपदेश झीलीने, स्व–परनी अत्यंत भिन्नता नक्की करीने तुं
स्वसन्मुख था. चैतन्यनुं स्वरूप जाणतांवेंत उपयोग तेमां सन्मुख थईने एकाग्र थयो
ते ज मोहने छेदवा माटे तीक्ष्ण तलवारनो प्रहार छे. समयसारमां तेने ‘प्रज्ञाछीणी’
कही छे, अहीं ‘तीखी तलवार’ कही छे.
वाह रे वाह! आचार्यभगवंतोनी वाणी आत्मार्थी जीवने शौर्य जगाडनारी छे;
जिनवाणी तो पुरुषार्थप्रेरक छे. कायरना काळजामां ते समाय नहि. वीतरागनी आ
वाणी झीलवी ते तो शूरवीरोनां काम छे.–‘हरिनो मारग छे शूरानो; नहीं कायरनुं काम.’
आत्माना स्वरूपनो निर्णय करवाना प्रयत्नकाळे ज्ञान साथे राग–विकल्प होवा
छतां, मुमुक्षुजीवनी बुद्धि स्वभाव तरफ ढळती होय छे; राग तरफ तेनी बुद्धि नथी ढळती,
पण तेनाथी भिन्न चैतन्यस्वरूप हुं छुं–एम अंतरना स्वभाव तरफ तेनी बुद्धि ढळे छे.
मारा गुण–पर्यायने मारा द्रव्य साथे संबंध छे, अने परना गुण–पर्यायने पर
द्रव्य साथे संबंध छे; चैतन्यभावरूप जे मारा द्रव्य–गुण–पर्यायो छे ते हुं छुं, ने बीजुं
बधुं माराथी पर छे;–आम स्व–परने सम्यक्पणे भिन्न जाणनार जीवने मोहनो क्षय
थई जाय छे. जिनवाणीनो पण ए ज उपदेश छे. तेथी जेणे स्व–परनुं भेदज्ञान करीने
मोहनो नाश कर्यो तेणे ज जिनवाणीनो साचो अभ्यास कर्यो छे.
जेम कोई पुरुष तीखी–तलवार हाथमां झालीने ऊभो रहे पण जो तेनो उपयोग
न करे तो शत्रुने हणी शके नहि; तेम जिनवाणीरूप तीखी तलवार महाभाग्यथी हाथमां