Atmadharma magazine - Ank 373
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : कारतक : २५०१
अर्हंतभगवंतोनुं महानसुख....ए ज मुमुक्षुनुं परम ईष्ट
महावीरना मार्गने सेवो.....ने....महान सुखने पामो
अहा, आत्मानुं अतीन्द्रिय सुख कोने न गमे? राग
वगरना ए महान आनंदनी वार्ता सांभळतां कया मुमुक्षुना
हैयामां आनंद न थाय? कोई पण बाह्यपदार्थो वगरनुं आत्मानुं
सुख सांभळतां ज मुमुक्षु तेनो होंशथी स्वीकार करे छे के वाह! आ
तो मारुं परम ईष्ट! आ तो मारा आत्मानो स्वभाव! –आ
प्रमाणे होंशथी स्वभावसुखनो स्वीकार करतो ते मुमुक्षु
सम्यग्दर्शन पामीने अतीन्द्रियसुखनो स्वाद चाखी ल्ये छे. अहा,
कुंदकुंदस्वामीए दिल खोलीखोलीने जे सुखनां गाणां गाया छे–ते
सुखना अनुभवनी शी वात? महावीरना मार्ग सिवाय एवुं सुख
बीजुं कोण बतावे? हे भव्य जीवो! महावीरना मार्गने सेवो....ने
आत्माना सुखने पामो.
[श्री प्रवचनसार आनंदअधिकार गा. ५३ थी ६८]
अतीन्द्रियज्ञान ते एकांतसुख छे. ज्ञानस्वभाव ज्यां छे त्यां सुखस्वभाव पण
छे ज; एटले गुणभेद न पाडो तो अतीन्द्रियज्ञानरूपे परिणमेलो आत्मा ते ज
अतीन्द्रियसुखरूप छे. आत्मामां ज्ञानपरिणमननी साथे ज सुखपरिणमन पण भेगुं ज
छे. सुख वगरनुं ज्ञान तेने खरेखर ज्ञान कहेता ज नथी. तेमज कोई कहे के अमे सुखी
छीए पण अमने ज्ञान नथी, –तो अतीन्द्रियज्ञान वगरनुं तेनुं सुख ते साचुं सुख नथी,
तेणे मात्र ईन्द्रियविषयोमां सुखकल्पना करी छे, –ते कल्पना मिथ्या छे.
अरे प्रभु! तारुं ज्ञान ने तारुं सुख बंने अचिंत्य, ईन्द्रियातीत, अद्भुत छे; तेने
ओळखतां तारुं ज्ञान ईंद्रियोथी छूटुं पडीने, अतीन्द्रिय–महान ज्ञानसामान्यमां व्यापी
जशे, –के जे स्वभाव महान ज्ञान ने सुखरूपे पोते ज परिणमे छे, तेने ज्ञानमां