Atmadharma magazine - Ank 374
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : मागशर : २५०१
होय के “विकार आत्मानुं कार्य छे ज नहि, ते जडनुं कार्य छे”–तो स्वभावद्रष्टि
अपेक्षाए तेनी वात साची छे–पण एवा जीवने तो पोतानी शुद्धस्वभावशक्तिनो
आश्रय वर्ततो होवाथी शुद्धता होय छे ने अत्यंत अल्प ज विकारो होय छे अने ते पण
क्षणे क्षणे तूटतो जाय छे. तेने मिथ्यात्वादि तो होतुं ज नथी.
जेने पोतानी स्वभावशक्तिनुं भान थईने अज्ञाननो नाश थयो छे, ते ज बीजा
जीवो संबंधमां एम यथार्थ जाणे छे के “आ निगोदादि बधा जीवोने द्रव्य–गुण तो शुद्ध
ज छे, छतां पर्यायमां जे विकार छे ते तेमनी पर्यायनो ते प्रकारनो स्वभाव छे. विकार
छे ते तेमनो पर्यायधर्म छे. द्रव्य के गुण विकारी नथी, एटले आजनो विकारी काले
स्वभावशक्तिनो आश्रय करीने शुद्ध थई शके छे.” –ए रीते, साधक धर्मात्माओने जेम
पोतामां पर्यायबुद्धि नथी तेम सामा जीवने पण तेओ पर्यायबुद्धिथी जोता नथी,–तेने
तेनी वर्तमान विकारी पर्याय जेटलो ज मानी लेता नथी पण द्रव्यशक्तिने जोनारी
तेमनी द्रष्टि तो बधा जीवोने सिद्ध–सद्रश देखे छे तेथी ते पवित्र द्रष्टिमां कोई उपर राग
के द्वेष नथी. अहो, ए वीतरागी द्रष्टि!! ते द्रष्टिने सिद्ध उपर राग नथी ने निगोद उपर
द्वेष नथी; सिद्ध अने निगोद एवा भेदने पण ते नथी देखती, ते तो शुद्धस्वभाव–
शक्तिपणे बधाय जीवोने समान ज देखे छे. खरेखर तो ए द्रष्टि पोताना द्रव्यस्वभाव
सिवाय बीजा कोईने देखती ज नथी.
आवी परम महिमावंत पावन द्रष्टि जेने प्रगटे ते संत ‘कर्म मारी पर्यायने
विकारी करी नांखे छे ’–एवी शौर्यहीन तूच्छ वातने केम स्वीकारे? अखंड स्वभाव–
शक्तिने संभाळीने तेनो धणी थयो ते जीव पोताना पर्यायस्वभावनुं धणीपणुं बीजाने
केम सोंपे? पोते ज पोतानी पर्यायनुं धणीपणुं स्वीकारीने, अखंड शुद्ध शक्ति
स्वभावना स्वीकारना बळवडे, ते पर्यायमां रहेला विकारने दूर करीने पूर्ण शुद्धतापणे
परिणमी जशे. अने बीजा जीवोनी पर्यायमां जे अशुद्धता–विकार हशे तेने ते परज्ञेयपणे
एम जाणशे के तेनी ते पर्यायनो तेवो स्वभाव छे, कर्म तेने विकार करावे छे एम नथी.
आ रीते अनेक स्वभाववाळी वस्तुने समजे तो सर्व प्रकारनुं समाधान थई
जाय; ने पोताने स्वाभाविक शुद्धता थती जाय, अशुद्धता छूटती जाय आनुं नाम
जैनशासन.