गंभीर एवुं चैतन्यतत्त्व, तेने जाणनारुं ज्ञान पण अनेकान्तवडे परम गंभीर छे.
जैनशासनमां ज तेनो पार पामी शकाय छे. चैतन्यना अनुभवरसमां सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र–सुख बधुं समाई जाय छे.
द्रव्यो वच्चे तो प्रदेशभेद छे, द्रव्य–गुण–पर्याय वच्चे प्रदेशभेद नथी, अभिन्नप्रदेशत्व छे.
धर्मात्मा सर्वगुणोथी अभेदवस्तुने अनुभवे छे.
पाडीने ‘आत्मा ध्रुव छे, आत्मा ज्ञान छे, आत्मा अध्रुव छे’–एम देखतां अनंत भेद
पडी जाय छे–विकल्पनी उत्पत्ति थाय छे, ने अभेदरूप साचा जीवनो अनुभव खोवाई
जाय छे. जुओ, ‘हुं ध्रुव छुं’–ए पण एक नयनो विकल्प छे; तेमां आत्मानो अनुभव
नथी. आत्माना अनुभवमां तो सर्वे गुणोथी अभेदरूप वस्तु छे. अनंतधर्मो आत्मामां
छे खरा,–पण अनुभवमां तेमनो भेद नथी. जो एक धर्मने जुदो पाडवा जाय तो
जीवनो अनुभव खोवाई जाय छे ने विकल्पनो कलेश ऊभो थाय छे. धर्मी तो धर्मोमां
भेद पाड्या वगर निर्विकल्प ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने अनुभवमां ल्ये छे.