Atmadharma magazine - Ank 374
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २५०१ आत्मधर्म : १३ :
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अनेकान्तरूपी आंखवडे ज आत्मा जोई शकाय छे. रागवडे, ईन्द्रियोवडे आत्मा
न जणाय, एकपक्षी ज्ञानवडे पण आत्मा जणाय नहि; अनंत स्वभावधर्मोथी परम
गंभीर एवुं चैतन्यतत्त्व, तेने जाणनारुं ज्ञान पण अनेकान्तवडे परम गंभीर छे.
जैनशासनमां ज तेनो पार पामी शकाय छे. चैतन्यना अनुभवरसमां सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्र–सुख बधुं समाई जाय छे.
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जेम बे द्रव्योनुं भिन्न भिन्न अस्तित्व छे, तेम एक द्रव्यनी अंदर द्रव्य–गुण–
पर्यायनुं भिन्न–भिन्न अस्तित्व नथी, पण एक ज अस्तित्वमां ते बधा समाय छे. बे
द्रव्यो वच्चे तो प्रदेशभेद छे, द्रव्य–गुण–पर्याय वच्चे प्रदेशभेद नथी, अभिन्नप्रदेशत्व छे.
एकला ध्रुवने जुदुं शोधतां अनुभव खोवाई जाय छे:
धर्मात्मा सर्वगुणोथी अभेदवस्तुने अनुभवे छे.
(धर्मात्मानी अनुभूतिमां द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावनो भेद रहेतो नथी, एक सत्ता रहे छे)
एक ज आत्मवस्तुमां ध्रुवपणुं, अध्रुवपणुं, ज्ञानपणुं, एकपणुं, सत्पणुं, वगेरे
अनंत गुण–स्वभावो छे, तेनुं द्रव्यथी अभिन्नपणुं छे; तेमांथी एकेक शक्तिनो भेद
पाडीने ‘आत्मा ध्रुव छे, आत्मा ज्ञान छे, आत्मा अध्रुव छे’–एम देखतां अनंत भेद
पडी जाय छे–विकल्पनी उत्पत्ति थाय छे, ने अभेदरूप साचा जीवनो अनुभव खोवाई
जाय छे. जुओ, ‘हुं ध्रुव छुं’–ए पण एक नयनो विकल्प छे; तेमां आत्मानो अनुभव
नथी. आत्माना अनुभवमां तो सर्वे गुणोथी अभेदरूप वस्तु छे. अनंतधर्मो आत्मामां
छे खरा,–पण अनुभवमां तेमनो भेद नथी. जो एक धर्मने जुदो पाडवा जाय तो
जीवनो अनुभव खोवाई जाय छे ने विकल्पनो कलेश ऊभो थाय छे. धर्मी तो धर्मोमां
भेद पाड्या वगर निर्विकल्प ज्ञानमात्र आत्मवस्तुने अनुभवमां ल्ये छे.
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न द्रव्येण खंडयामि, न क्षेत्रेण खंडयामि,
न कालेन खंडयामि, न भावेन खंडयामि,