काळथी भेद पाडीने खंडित करतो नथी, के भावथी भेद पाडीने खंडित करतो नथी;
अभेद अनुभवुं छुं’ एटलोय भेद न लीधो, पण ‘हुं सुविशुद्ध ज्ञानमात्रभाव ज छुं. ’
–तेमां स्वद्रव्य–स्वक्षेत्र–स्वकाळ ने स्वभाव समाई जाय छे. स्वद्रव्य–स्वक्षेत्र–स्वकाळ–
स्वभाव एम जुदी जुदी चार सत्ता नथी, चारे स्वरूप एक ज सत्ता छे.
चारेय आवी जाय छे; जुदुं जुदुं एकेकनुं ग्रहण अनुभूतिमां थतुं नथी; अनुभूतिमां बधुं
भेगुं ज छे. भेद पाडीने ग्रहण करवा जतां विकल्पनो उदय थाय छे ने अनुभूति अस्त
थई जाय छे....तथा अनुभूतिनो उदय थतां भेदो अस्त थई जाय छे.
चैतन्यवस्तुनुं ग्रहण करतां तेना स्वद्रव्य क्षेत्र–काळ–भावो, उत्पाद–व्यय–ध्रुव, द्रव्य–
गुण–पर्याय, एम बधा स्वभावोनुं एकसाथे ग्रहण थई जाय छे, तेमां खंड–खंडरूप भेद
रहेतो नथी.–अहो, आवी अनुभूतिना महान अतीन्द्रिय आनंदने धर्मी ज जाणे छे.
अंदरना एकेक गुणनो विचार पण अनुभूतिने अटकावे छे त्यां बीजा बहारना
तारा स्वतत्त्वनां दर्शन तने थशे, ने एनुं दर्शन थतां तने तारो अपूर्व आनंद स्वादमां
आवशे, तारुं भवभ्रमण मटी जशे.–अहा, आवा अनुभवनी शी वात?