Atmadharma magazine - Ank 374
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : मागशर : २५०१
सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रभावो अस्मि।
अनंतधर्मथी अभेद शुद्ध चेतनारूप मारा आत्माने अनुभवतो हुं, मारा
आत्माने द्रव्यथी भेद पाडीने खंडित करतो नथी, क्षेत्रथी भेद पाडीने खंडित करतो नथी,
काळथी भेद पाडीने खंडित करतो नथी, के भावथी भेद पाडीने खंडित करतो नथी;
अखंडितपणे वस्तुने राखीने सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भावरूपे ज हुं छुं. जुओ, ‘हुं मने
अभेद अनुभवुं छुं’ एटलोय भेद न लीधो, पण ‘हुं सुविशुद्ध ज्ञानमात्रभाव ज छुं. ’
–तेमां स्वद्रव्य–स्वक्षेत्र–स्वकाळ ने स्वभाव समाई जाय छे. स्वद्रव्य–स्वक्षेत्र–स्वकाळ–
स्वभाव एम जुदी जुदी चार सत्ता नथी, चारे स्वरूप एक ज सत्ता छे.
एक जीववस्तुमां स्वद्रव्यनो ध्रुवअंश जुदो, क्षेत्रनो अंश जुदो, स्वपर्यायरूप
काळनो अंश जुदो, ने स्व भावोनो अंश जुदो–एम जुदाजुदा चार अंशो नथी. एकमां
चारेय आवी जाय छे; जुदुं जुदुं एकेकनुं ग्रहण अनुभूतिमां थतुं नथी; अनुभूतिमां बधुं
भेगुं ज छे. भेद पाडीने ग्रहण करवा जतां विकल्पनो उदय थाय छे ने अनुभूति अस्त
थई जाय छे....तथा अनुभूतिनो उदय थतां भेदो अस्त थई जाय छे.
ऊंडी–गंभीर–महान अनुभूतिना आनंदनो महिमा
जेम एक मीठी–मोटी–पीळी केरीनुं ग्रहण करतां तेना स्पर्श–रस–गंध–वर्ण जुदा
नथी रहेता, केरीना ग्रहणमां ते बधानुं ग्रहण थई जाय छे; तेम अनुभूतिमां
चैतन्यवस्तुनुं ग्रहण करतां तेना स्वद्रव्य क्षेत्र–काळ–भावो, उत्पाद–व्यय–ध्रुव, द्रव्य–
गुण–पर्याय, एम बधा स्वभावोनुं एकसाथे ग्रहण थई जाय छे, तेमां खंड–खंडरूप भेद
रहेतो नथी.–अहो, आवी अनुभूतिना महान अतीन्द्रिय आनंदने धर्मी ज जाणे छे.
अरे जीव! अनुभूति माटे आत्मामां केटले ऊंडे जवानुं छे–ते तो जो. आटली
ऊंडी गंभीर तारी वस्तु, तेमां जवा माटे बहारना रागादिभावो शुं काम आववाना छे?
अंदरना एकेक गुणनो विचार पण अनुभूतिने अटकावे छे त्यां बीजा बहारना
भावोनी शी वात? सीधो अंदरनी वस्तुमां ऊतरी जा, ने आत्माने पकडी ले, त्यारे ज
तारा स्वतत्त्वनां दर्शन तने थशे, ने एनुं दर्शन थतां तने तारो अपूर्व आनंद स्वादमां
आवशे, तारुं भवभ्रमण मटी जशे.–अहा, आवा अनुभवनी शी वात?
–आवो अनुभव ते ज भगवान महावीरनो मार्ग छे.
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