Atmadharma magazine - Ank 374
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: मागशर : २५०१ आत्मधर्म : १५ :
साधकदशानी अद्भुतता!–तेमां मुक्ति पण स्पर्शे छे
पोताना स्वरूपनो अनुभव करनार साधक धर्मात्मा आत्माना परम अद्भुत
महिमानो साक्षात्कार करे छे: अहो, चैतन्यस्वभावनी गंभीरतानो कोई परम अपार
महिमा छे. पर्यायमां एक तरफथी जोतां वीतरागी शांति वेदाय छे; ने वळी बीजी तरफ
कषायनो कोलाहल पण देखाव दे छे.–जुओ, आ साधकभाव! एकलो कषाय नथी तेम
कषायनो सर्वथा अभाव पण थयो नथी; कंईक शांति, ने कंईक दुःख, बंने भावो
पोतानी एकपर्यायमां एकसाथे वर्ते छे; छतां भेदज्ञान ते बंने भावोने सर्वथा भिन्न
जाणे छे.–आवी साधकदशा आश्चर्यकारी छे; तेमां चैतन्यनो महिमा अद्भुत छे,–ते तो
सदाय साधकना ज्ञानमां वर्ते ज छे.–राग वखतेय कांई चैतन्यनी अद्भुततानो महिमा
चुकातो नथी.
ज्ञानीने वळी कषाय होय?–ज्ञानचेतनानी साथे साधकने ते भूमिकाने योग्य
कषाय (दशमा गुणस्थान सुधी) वर्ते छे, पण ज्ञानीनी विशेषता ए छे के तेनी ज्ञान–
चेतना जे खीली छे ते तो कषाय वगरनी शांतरसमां ज लीन छे; तेने चेतनानुं कार्य
अने कषायनुं कार्य–बंने तद्न जुदा ज भासे छे; चेतनाने अने कषायने–एकबीजाने
कांई लागतुं–वळगतुं नथी. जुओ, आ धर्मात्मानी अद्भुतता! एक ज पर्यायमां बे
भावो, छतां बंने भावोने जराय कर्ता–कर्मपणुं नथी, ज्ञानचेतना कषायने करती नथी के
भोगवती नथी. एटले ज्ञानचेतनामां तो शांति अने मुक्ति ज स्पर्शे छे.
संबोधन
* अली सखी! एवा दर्पणने ते शुं करवुं?–के जेमां आत्मानुं प्रतिबिंब
न देखाय. मने तो आ जगत बहावरुं प्रतिभासे छे–के जेने गृहपति घरमां
होवा छतां तेनुं दर्शन नथी थतुं.
* जीवतां ज जेने, पांच ईन्द्रियसहित मन मरी गयुं तेने मोकळो– छूटो
ज जाणो निर्वाणपंथ तेणे प्राप्त करी लीधो.
* हे वत्स! थोडा काळमां जेनो क्षय थई जाय छे–तेवा घणा अक्षरोने
तारे शुं करवा छे? मुनि तो ज्यारे अनक्षर (शब्दातीत–ईन्द्रियातीत) थाय छे
त्यारे मोक्षने पामे छे. (पाहुड दोहा: १२२–२३–२४)