Atmadharma magazine - Ank 374
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : मागशर : २५०१
धर्मात्मानो आत्मव्यवहार
[शुद्ध द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूप स्वघरमां वसवानी रीत]
[कारतक सुद ११ ना रोज सोनगढमां सुरेन्द्रनगरना भाईश्री
जगजीवन चतुरदासना मकान ‘कहान–जग–मोती’ ना
वास्तुप्रसंगे प्रवचनसार गा. ९४ ना प्रवचनमांथी.]
चैतन्यस्वरूप आत्मा ते स्ववस्तु छे, तेमां वसवुं–परिणमवुं ते स्वघरमां वास्तु
छे; मकान–शरीरादि परवस्तु छे, तेमां पोतानुं एकत्व मानीने जे परभावमां परिणमी
रह्यो छे ते परघरमां भमे छे–संसारमां रखडे छे.
भाई, तारुं स्वतत्त्व तारा द्रव्य–गुण–पर्यायमां छे. तेमां तुं बीजानो प्रवेश
कराववा मांगे तो ते थई शके नहिं; तारुं तत्त्व बीजामां जईने शरीरादिनी कांई क्रिया
करे–एम पण बनतुं नथी. आवुं भिन्नपणुं जे नथी जाणतो ने शरीररूपे पोतानुं
अस्तित्व मानीने (हुं मनुष्य छुं, हुं देव छुं–एम मानीने) मनुष्यत्वादि व्यवहाररूपे वर्ते
छे तेओ पर्यायमूढ–परसमय छे एटले के अधर्मी छे.
अने मारुं चेतनपणुं, शरीरादि परथी भिन्न मारा द्रव्य–गुण–पर्यायमां ज सत्
छे–एम पोताना अस्तित्वने पोतामां ज देखतो थको, जे अविचलित चेतनाविलासरूपे
वर्ते छे ते शुद्ध आत्मव्यवहारमां वर्ते छे एटले ते जीव स्वसमय छे–स्वधर्मी छे.
स्वद्रव्यमां रत जीव स्वसमय छे ने ते उत्तमगतिरूप मोक्षने पामे छे.
जे परद्रव्यमां रत छे ते परसमय छे, ने ते दुर्गतिरूप संसारने पामे छे.
ए महा सिद्धांत कुंदकुंदस्वामीए मोक्षप्राभृतमां बताव्यो छे.
जेओ स्वद्रव्यने जाणीने तेमां ज रत छे तेमने पर साथे कांई संबंध नथी, एटले
क््यांय राग–द्वेष नथी, ते वीतराग थईने मोक्षदशारूप सुगतिने पामे छे.
• स्वद्रव्यने भूलीने जेओ परसाथे संबंध माने छे, तेओ परमां ईष्ट–अनिष्ट–
बुद्धिथी राग–द्वेष करता थका संसाररूप दुर्गतिमां भ्रमण करे छे.
स्वसमयमां स्थिति शुद्धोपयोगवडे थाय छे. रागपरिणामवडे स्वसमयमां स्थिति