: मागशर : २५०१ आत्मधर्म : १७ :
थती नथी, भाई, तुं महावीर भगवानना मार्गमां आव्यो, तो महावीरभगवाननो
मार्ग तो आ छे के परथी भिन्न एवा पोताना स्वसमयने जाणीने तेमां स्थित था.
अनेकान्तद्रष्टिवडे स्वद्रव्यगुणपर्यायने परथी जुदा जाणीने तेनो ज आश्रय कर; स्व–
सन्मुख परिणमीने शुद्धचेतनारूप आत्मव्यवहारनो आश्रय कर,–एटले के शुद्ध–चेतना–
परिणतिने अंगीकार कर,–तो तने स्वसमयपणुं थशे.–ए ज महावीरशासननो सार छे.
• जेओ अनेकांतद्रष्टिवाळा स्वसमय–धर्मी छे तेओ मनुष्यव्यवहारना
क्रियाकलापने भेटता नथी, पण तेनाथी पोतानी चेतनाने भिन्न जाणीने
चेतनरूप स्वद्रव्यने ज भेटे छे.
• पर प्रत्ये परम उदासीनताने लीधे तेमने राग–द्वेषना उन्मेष अटकी जाय छे.
• परद्रव्यनी संगति छोडी छे ने केवळ स्वद्रव्यनी ज संगति करी छे तेथी
स्वद्रव्यना आश्रये शुद्धपरिणतिरूप स्वसमयपणुं थाय छे.
–आवुं स्वसमयपणुं ते ज जिनेश्वरभगवंतोनो मार्ग छे.
हुं मनुष्य छुं, शरीरादिनी क्रियाओ मारी छे, तेने हुं करुं छुं, धन–मकान–पुत्रादि
मारां ने हुं तेनो मालिक–एम मानीने वर्तवुं ते अज्ञानीनो मनुष्यव्यवहार छे. ज्ञानी
एवा मिथ्या (असद्भुत) व्यवहारमां आत्मापणे वर्तता नथी.
शरीर अने संयोगो बदलवा छतां हुं तो तेनाथी जुदो मारी चेतनारूपे ज
अविचल रहुं छुं–एम पोतानी चेतनारूपे ज वर्तन ते ज्ञानीनो आत्मव्यवहार छे; ज्ञानी
तेमां वर्ते छे.
देह अने आत्माने एक मानीने मनुष्यादि पर्यायमां जेओ लीन वर्ते छे तेओ
एकांतद्रष्टिवाळा छे, तेओ मनुष्यव्यवहारनो आश्रय करता थका रागी–द्वेषी थाय छे ने
संसारमां रखडे छे. स्वज्ञेयने तेओ जाणता नथी, ने परज्ञेयमां तन्मयपणुं मानीने
जडकर्म साथे संबंध करीने, परसमय थईने संसारमां रखडे छे.
अनेकांतद्रष्टिवाळा धर्मी जीवो, चेतनालक्षणवडे पोताने परद्रव्यथी सर्वथा भिन्न
अनुभवता थका, स्वज्ञेयने जाणता थका, भगवान आत्मस्वभावमां ज स्थित छे; तेओ
परद्रव्यो प्रत्ये उदासीन वर्तता थका, राग–द्वेषरूपे नहि थता थका, केवळ चिन्मात्र
स्वद्रव्यमां ज एकत्वपणे परिणमता थका, शुद्धचेतनारूप आत्मव्यवहारनो आश्रय करे
छे, तेओ स्वसमय छे, ने आनंदमय परमात्मपदने पामीने सदाकाळ स्वघरमां वसे छे,