छे. जेओ एकली पर्यायने ज जाणे छे पण द्रव्य–गुणमांथी पर्याय आवे छे एम नथी
जाणता, एटले के जेओ द्रव्य–गुणमांथी पर्याय आवे छे एम मानीने द्रव्यनो आश्रय
नथी करता ने पर्यायनो ज आश्रय करे छे, तेओ पर्यायमूढ छे, ने पर्यायमूढ ते परसमय
एटले के मिथ्याद्रष्टि छे.
गुणमांथी आवे छे एम नक्की कर्युं एटले त्रिकाळी रहेनार अने परिपूर्ण एवा द्रव्यगुण
साथे पर्यायनो संबंध थतां, ते त्रिकाळना आश्रये पर्यायमां निर्मळतानुं जोर प्रगट्युं.
पण द्रव्य–गुणमांथी पर्याय न मानतां पर्यायने ज माने तो पर्यायना आश्रये पर्यायमां
निर्मळतानुं जोर आवतुं नथी; जे द्रव्य–गुणना आश्रये पर्याय न माने ते पर्यायनो
संबंध पर साथे माने, परंतु पर साथे तो बिलकुल संबंध नथी एटले तेने पर्यायमां
कांई जोर आवतुं नथी. केमके परमांथी तो कांई पर्यायनुं जोर आवतुं नथी; ते जोर तो
द्रव्य–गुणमांथी ज आवे छे, (माटे
अंर्तमुख थवानुं ने परथी परांग्मुख थवानुं श्री आचार्यदेवे बताव्युं छे. वर्तमान अंश
छे ते आखा अंशीमां अंतर्मुख न वळे एटले के एकत्वनी अनुभूति न करे त्यां सुधी
‘द्रव्य’ नी श्रद्धा बेसे नहि ने पर्यायमूढता टळे नहि.
‘द्रव्यनी पर्याय’ मानी कहेवाय. जो पराश्रय छोडीने स्वाश्रय–द्रव्य तरफ न वळे तो तेणे
‘द्रव्यनी पर्याय छे’ एम खरेखर मान्युं न कहेवाय. ‘पर्याय द्रव्यनी छे’ एवी मान्यता
थतां द्रव्यसन्मुखी परिणमन थया वगर रहे नहि.