: मागशर : २५०१ आत्मधर्म : २३ :
मारा उत्पाद–व्यय–ध्रुवथी बहार जईने बीजामां हुं कांई करुं–एवुं मारुं अस्तित्व
छे ज नहीं. बीजाना उत्पाद–व्यय–ध्रुव तेना पोताना अस्तित्वथी छे, माराथी नहि.
–आवी स्वतंत्रताना सम्यग्ज्ञानमां वीतरागता छे;
स्वतंत्रता जाणतां स्व–परनी भिन्नता जणाय छे;
स्व–परनी भिन्नताने जाणतां स्वतत्त्वमां संतोष थाय छे.
स्वतत्त्वमां संतुष्ट थतां स्वाश्रये वीतरागभाव थाय छे.
वीतरागतामां ज सुख छे; अने सुख ते जीवनुं ईष्ट छे.
आ रीते ईष्टनी प्राप्तिनो आ उपाय छे.
ने आ ज महावीरप्रभुनो ईष्ट उपदेश छे.
सत्कायर्
सत्कार्य तो तेने कहेवाय के जेनां फळमां चोक्कस पोताने
शांति मळे. जेनाथी शांति न मळे तो एवा निष्फळ कार्यने तो सत्कार्य
कोण कहे? ने एवा नकामा–निष्फळ कार्यने तो क्यो सूज्ञपुरुष करे?
सूज्ञपुरुषो निष्फळ प्रवृत्ति (तेल माटे रेती पीलवा जेवी) करता
नथी....जेमां कांई पण प्रयोजन सधातुं होय एवी ज प्रवृत्ति करे छे.
हवे एवी प्रवृत्तिरूप सत्कार्य शुं छे? ते जोईए:–आत्मानुं
स्वकीय ‘सत्’ तो उपयोगस्वरूप चैतन्यतत्त्व छे; ते सत् चैतन्यमां
प्रवृत्ति,–ते सत्प्रवृत्ति अथवा सत्कार्य छे. अने सत्कार्यमां परम
शांतिनुं वेदन होवाथी ते सफळ प्रयोजनरूप छे.
स्वतत्त्वमां प्रवृत्तिरूप आवुं सुंदर सत्कार्य त्यारे ज थई शके के
ज्यारे बीजा बधाथी भिन्न, अत्यंत सुंदर एवा स्वतत्त्वने जाण्युं
होय. स्वद्रव्यनी महान सुंदरताने जे जाणे तेने तेमां ज प्रवृत्ति
करवानुं मन थाय; ने तेना सिवाय दुःखदायक एवी बाह्यप्रवृत्तिथी
तेनुं चित्त हटी जाय. आ धर्मीनुं सत्कार्य छे, ने ते चोक्कस अपूर्व
शांति देनार छे.