Atmadharma magazine - Ank 374
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २६ : आत्मधर्म : मागशर : २५०१
शिष्य विनयथी ऊभो रहे तेम भरत पासे हाथी विनयथी ऊभो. भरते प्रेमथी तेना
माथे हाथ मूकीने कह्युं–अरे गजराज! तने आ शुं थयुं? तुं शांत था!! आ तने शोभतुं
नथी. तारा चैतन्यनी शातिने तुं जो.
भरतना मीठां वचन सांभळतां हाथीने
घणी शांति थई; तेनी आंखमांथी आंसु नीकळवा
लाग्या! वैराग्यथी ते विचारवा लाग्यो के अरे, हवे
अफसोस करवो शुं कामनो?–पण हवे मारुं
आत्मकल्याण थाय, ने हुं आ भवदुःखथी छूटुं–
एवो उपाय करीश.–आ रीते परम वैराग्यनुं
चिंतन करतो ते हाथी एकदम शांत थईने भरतनी
सामे टगटग नजरे जोतो ऊभो: जाणे कहेतो होय
के हे बंधु! तमे पूर्वभवना मारा मित्र छो, पूर्वे
स्वर्गमां आपणे साथे हता, तो अत्यारे पण मने
आत्मकल्याण आपीने आ पशुगतिमांथी मारो उद्धार करो!
वाह रे वाह! धन्य हाथी! तें हाथी थईने आत्माने समजवानुं मोटुं काम कर्युं!
पशु होवा छतां ते परमात्माने ओळखी लीधा ने तारुं जीवन सार्थक कर्युं.
हाथीने एकाएक शांत थई गयेलो जोईने लोको आश्चर्य पाम्या–अरे आ शुं
थयुं! भरते हाथी उपर शुं जादू कर्युं? ते आम एकाएक शांत केम थई गयो? भरत
तेना उपर बेसीने नगरीमां आव्यो; ने हाथीने हाथीखानामां राख्यो; मावत लोको तेनी
खूब सेवा करे छे. तेने रीझववा वाजिंत्र वगाडे छे, तेने माटे लाडवा करावे छे; तेने
उत्तम शणगार सजे छे–पण आश्चर्यनी वात ए छे के हाथी हवे कांई खातो नथी,
वाजिंत्रमां के शणगारमां ध्यान देतो नथी, ऊंघतो पण नथी, ते एकदम उदास रहे छे;
क्रोध पण नथी करतो. एकलो–एकलो आंखो मींचीने शांत थईने बेसी रहे छे. ने
आत्महितनी ज विचारणा करे छे–आम ने आम खाधा–पीधा वगर एकदिवस गयो, बे
दिवस गया, चार दिवस थई गया....त्यारे महावतो मूंझाया ने श्रीराम पासे आवीने
कह्युं–हे देव! आ हाथी चार दिवसथी कांई खातो नथी, पीतो नथी, ऊंघतो नथी, तोफान
पण करतो नथी; शांत थईने बेठो छे, ने आखो दिवस कांईक ध्यान कर्या करे छे!–तो शुं
करवुं? तेने रीझववा अमे घणुं करीए छीए, तेने प्रेमथी बोलावीए छीए तो
सांभळतो नथी. सारूं सारूं मिष्टभोजन खवडावीए छीए तो खातो नथी.–एना मनमां
शुं छे? ते खबर