Atmadharma magazine - Ank 375
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २५०१ आत्मधर्म : ७ :
४. प्रतीतवंत:– देव–गुरु–धर्म उपर तेमज साधर्मी उपर तेने प्रतीत होय छे. वात–
वातमां साधर्मी उपर संदेह करवो ते श्रावकने शोभे नहि पोतानुं
अपमानादि थाय, प्रतिकूळता आवे के बीजाना मानादि वधी जाय
तेथी धर्ममां सन्देह करतो नथी, द्रढ प्रतीति राखे छे.
५. परदोषने ढांकनार:– अरेरे, दोषमां तो जगतना जीवो डुबेला ज छे, त्यां पारका दोष
शुं जोवा? मारे तो मारा दोष मटाडवाना छे. कोई साधर्मी के अन्य
जीवथी दोष थई जाय तो तेनी रक्षा करीने दोष दूर थाय तेम करवुं
उचित छे; पण दोष देखीने निंदा करवी उचित नथी.
६. परउपकारी:– धर्मबुद्धिवडे तेमज तन–मन–धनादिवडे पण परजीवोनो उपकार करे
छे. जगतना जीवोनुं हित थाय, साधर्मीओने देव–गुरु–धर्मना
सेवनमां सर्व प्रकारे अनुकूळता आपुं ने तेओ निराकूळपणे धर्मने
आराधे–एवी उपकारभावना श्रावकने होय छे.
७. सौम्यद्रष्टिवंत:– एनी द्रष्टिमां सौम्यता होय छे; जेम माता बाळकने मीठी नजरे जुए
छे तेम धर्मात्मा बधा जीवोने मीठी नजरे जुए छे. एने जोईने
बीजा भयभीत थाय–एवी कठोरता होय नहि; परिणाम घणा सौम्य
होय छे–जेनो संग बीजा जीवोने शांति पमाडे छे.
८. गुणग्राही:– गुणनो ग्राहक होय छे; सम्यक्त्वादि गुणोने देखीने तेनी प्रशंसा करे
छे; अल्प क्रोधादि दोष देखीने सम्यक्त्वादि गुणो प्रत्ये अनादर करतो
नथी, पण गुणोने ओळखीने तेनो आदर करे छे. पोतानुं कोई
अपमानादि करे तेथी तेना गुणनो पण अनादर न करी नांखे, पण
एम विचारे के मारुं भले अपमान कर्युं पण एनामां जैनधर्म
प्रत्येनो प्रेम–आदर छे; ते जैनधर्मना भक्त छे, देव–गुरुनो आदर
करनारा छे, मारा साधर्मी छे; एम तेना गुणनुं ग्रहण करे. आम
गुणनुं ग्रहण करवाथी ते साधर्मी प्रत्ये द्वेषभाव न आवे, पण प्रेम
अने वात्सल्य आवे छे.
९. गरिष्ट (सहनशील):– संसारमां शुभाशुभ कर्मयोगे अनुकूळता प्रतिकूळता तो
आवे; कंईक प्रतिकूळता आवी जाय के अपमानादि थाय, रोग थाय,
त्यां धैर्यपूर्वक सहन करे ने धर्ममां द्रढता राखे; प्रतिकूळतामां
गभराई न जाय, आर्तध्यानथी खेदखिन्न न थाय; पण
सहनशीलतापणे वैराग्य वधारे.