Atmadharma magazine - Ank 375
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : पोष : २५०१
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अध्यात्म–कवि पं. बनारसीदासजीए नाटक
समयसारमां छेल्ले १४ गुणस्थाननुं वर्णन कर्युं छे; तेमां
अणुव्रतरूप पंचमगुणस्थानना वर्णनमां श्रावकनां २१ गुणो
बताव्या छे. ते सर्वे जिज्ञासुओने उपयोगी होवाथी अहीं
आपीए छीए. दरेक मुमुक्षुए आ गुणोनुं स्वरूप विचारीने
पोतामां धारण करवा; तेना वडे जीवन शोभी ऊठशे:–
(सवैया)
लज्जावंत, दयावंत, प्रशांत, प्रतीत्तवंत, परदोषको ढकैया, पर–उपकारी है;
सौम्यद्रष्टि, गुणग्राही, गरिष्ट, सबको ईष्ट, शिष्टपक्षी, मिष्टवादी, दीरध–विचारी है;
विशेषज्ञ, रसज्ञ, कृतज्ञ, तज्ञ धरमज्ञ, न दीन न अभिमानी, मध्य व्यवहारी है;
सहज विनित, पाप क्रियासों अतीत ऐसो श्रावक पुनीत ईकवीस गुणधारी है.
१. लज्जावंत:– कोई पण पापकार्य, अन्याय, अनीति वगेरेमां तेने शरम आवे के
अरे! हुं जैन; हुं जिनवरदेवनो भक्त, हुं आत्मानो जिज्ञासु, –तो
मने आवा पापकार्य शोभे नहि; मारुं जीवन तो रत्नत्रयरूप उत्तम
भाववाळुं होय.
२. दयावंत:– अरे, आ घोर दुःखमय संसार, तेमां जीवो केवा दुःखी छे!! मारा
निमित्ते कोई जीवने दुःख न हो, कोईने दुःख देवानो भाव मने न हो
मारो आत्मा दुःखथी छूटे, ने जगतना जीवो पण दुःखथी छूटे,–
एवी दया भावना होय छे.
३. प्रशांत:– कषाय वगरना शांत परिणाम होय; मान–अपमानादिना नजीवा
प्रसंगोमां वारंवार क्रोध थई आवे, के नजीवा प्रसंगमां हरखना
हीलोळे चडी जाय–एवुं तेने न होय; बंने प्रसंगोमां विशेष क्रोध के
हरख वगर शांत–गंभीर परिणामवाळो होय.