: पोष : २५०१ आत्मधर्म : ९ :
१७. तत्त्वज्ञ:– तत्त्वनो जाणकार होय; जैनधर्मना मुख्य तत्त्व शुं छे? तेने बराबर
समजीने तेना प्रचारनी भावना करे. बुद्धिअनुसार करणानुयोग
वगेरे सूक्ष्म तत्त्वोनो पण अभ्यास करे. धर्मीश्रावक आत्मतत्त्वने तो
जाणे छे, ते उपरांत जैनशास्त्रोना अगाध गंभीर श्रुतज्ञानमां कहेलां
विपरीतता छे ते पण जाणीने ते दूर करवा प्रयत्न करे छे.
१८. धर्मज्ञ:– धर्मनो जाणनार होय; क्यां निश्चयधर्मनी प्रधानता छे, क्यां
व्यवहारधर्मनी प्रधानताथी वर्तवुं योग्य छे! एम धर्मना बधा
पडखा जाणीने, शासनने शोभे तेवुं वर्तन करे. श्रावकनो धर्म शुं?
मुनिनो धर्म शुं? धर्ममां, तीर्थोमां शास्त्रादिमां के साधर्मीमां क्यारे
दानादिनी जरूर छे! ते संबंधी श्रावकने जाणकारी होय.
१९. दीनता रहित, तेमज अभिमान रहित एवो मध्यस्थ–व्यवहारी: – धर्मनुं गौरव
सचवाय, तेमज पोताने अभिमानादि न थाय–ते रीते मध्यस्थ
व्यवहारथी वर्ते, व्यवहारमां ज्यां त्यां दीन पण न थई जाय;
रोगादि प्रसंग होय, दरिद्रतादि होय तेथी गभराईने एवो दीन न
थाय के जेथी धर्मनी अवहेलना थाय! अरे, हुं पंचपरमेष्ठीनो भक्त,
मारे दुनियामां दीनता केवी? तेमज देव–गुरु–धर्मना प्रसंगमां
साधर्मीना प्रसंगमां अभिमान रहित नम्रपणे प्रेमथी वर्ते.
साधर्मीनी सेवामां के नाना साधर्मी साथे हळवा–मळवामां हीणप न
माने. ए रीते दीन नहि तेमज अभिमानी नहि एवो
मध्यस्थव्यवहारी श्रावक होय.
२०. सहज विनयवंत:– विनयनो प्रसंग होय त्यां तेने सहेजे विनय आवे. देव–गुरुनो
प्रसंग, साधर्मीनो प्रसंग, वडीलोनो प्रसंग, तेमां योग्य विनयथी
वर्ते. सम्यक्त्वादि गुणीजनोने देखतां प्रसन्नताथी विनय–बहुमान–
प्रशंसा करे; कोई प्रत्ये ईर्षाभाव न आवे. शास्त्र प्रत्ये, धर्मस्थानो
प्रत्ये, तेमज लोकव्यवहारमां पण विनय–विवेकथी योग्य रीते वर्ते,
कोई प्रत्ये अपमान के तिरस्कारथी न वर्ते.
२१. पापक्रियाथी रहित:– कुदेव, कुधर्मना सेवनरूप मिथ्यात्वादि पापने तेमज मांसादि
अभक्ष्य भक्षणना तीव्र हिंसादि पापोने तो सर्वथा छोड्या ज छे, ते
उपरांत आरंभ–परिग्रह संबंधी जे पापक्रियाओ, तेनाथी पण
जेटलो बने तेटलो छूटवानो ने निर्दोष शुद्ध जीवननो अभिलाषी छे.
अने, आवो जैनधर्म ने आवुं अद्भुत आत्म–