Atmadharma magazine - Ank 375
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २५०१ आत्मधर्म : ११ :

एक जैन सद्गृहस्थना घरमां सौ उत्तम संस्कारी हता;
तेमां आनंदकुमार–भाई अने धर्मवती–बेन, तेओ बहारनी
विकथा के सिनेमा वगेरेमां रस लेवाने बदले, दररोज रात्रे
तत्त्वचर्चा करता, तेमज महापुरुषोनी धर्मकथा करीने आनंद
मेळवता. ते भाई–बहेन केवी चर्चा करता हता तेनो नमुनो
अहीं आप्यो छे. तमे पण तमारा भाई–बेन साथे धर्मचर्चा
करता ज हशो. न करता हो तो हवे जरूर करजो. आजे ज
मूरत करजो, ने शुं चर्चा करी ते अमने लखजो.
–‘जय महावीर’

धर्मवतीबेन कहे: भाई, अनंतकाळे आपणने आ मनुष्य–अवतार मळ्‌यो; तो हवे आ
जीवनमां शुं करवा जेवुं छे?
आनंदकुमारभाई कहे: बहेन, मनुष्यजीवनमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी आराधना
करवा जेवी छे.
बेन: हे भाई! सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप रत्नत्रयनी आराधना केवी रीते थाय?
भाई: बेन! ए रत्नत्रयना मुख्य आराधक तो मुनिवरो छे; तेओ चैतन्यस्वरूपमां
लीनता वडे रत्नत्रयने आराधे छे.
बेन: भाई! रत्नत्रयना ‘मुख्य’ आराधक मुनिवरो छे तो शुं गृहस्थोने पण
रत्नत्रयनी आराधना होई शके?
भाई: हा, बेन! एक अंशरूपे रत्नत्रयनी आराधना गृहस्थोने पण होई शके छे.
बेन: आपणा जेवा नाना बाळक पण शुं रत्नत्रयनी आराधना करी शके?
भाई: हा, जरूर करी शके; पण ते रत्नत्रयनुं मूळ बीज सम्यग्दर्शन छे; तेथी पहेलांं
तेनी आराधना करवी जोईए.