Atmadharma magazine - Ank 375
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २५०१ आत्मधर्म : २३ :
सर्वज्ञ भगवाननो उपदेश आत्माना हितनुं कारण छे. संगथी पार थईने
आत्माना स्वभाव सन्मुख था, ते ज हितनो उपाय छे, –एम भगवाननो उपदेश छे.
अरिहंत भगवान ज सर्वज्ञ–हितोपदेशी छे, ते ज ईष्टदेव छे.
पहेला श्लोकमां सिद्ध भगवानने तथा बीजा श्लोकमां अरिहंत भगवानने
नमस्कार करीने त्रीजा श्लोकमां श्री पूज्यपादस्वामी कहे छे के, जे केवळ–सुखनो
अभिलाषी छे एवा मोक्षार्थी जीवने माटे हुं कर्ममलथी विभक्त एवा सुंदर आत्मानुं
स्वरूप कहीश.






अहो! जे जीवो आत्माना अतीन्द्रियसुखने झंखी रह्या छे तेमने माटे हुं कर्मथी
भिन्न शुद्ध आत्मानुं स्वरूप बतावीश, के जे आत्माने जाणतां जरूर अतीन्द्रिय आनंद
थाय. आत्मा पोते अतीन्द्रिय आनंदनो सागर छे; जगतना अनंतकाळना भव–
भ्रमणना दुःखथी थाकीने जेने केवळ आत्माना सुखनी स्पृहा जागी छे–एवा भव्य
आत्माने माटे अहीं भिन्न आत्मानुं स्वरूप बतावीश.
मारो मारा आत्मानो अतीन्द्रिय आनंद प्राप्त करवो छे, अने ते मने जरूर प्राप्त
थशे–एम आत्माना सुखने जे लेवा मांगे छे तेने आ वात समजावे छे. एक आत्माना
अतीन्द्रिय सुख सिवाय जगतमां बीजुं कांई तेने वहालुं नथी, केवळ आनंदनी ज तेने
भावना छे, एवो भव्य जीव देहादिथी भिन्न आत्मानुं स्वरूप जाणीने आत्मानी अपूर्व
शांतिने जरूर पामे छे.
बार अंगरूप जिनवाणीनो सार ए छे के कर्मथी भिन्न, संयोगथी भिन्न,
ज्ञानआनंदस्वरूप आत्मा छे–तेनुं लक्ष करवुं ने तेमां ठरवुं. जेणे आवा आत्मानुं लक्ष
कर्युं तेनो जन्म सफळ छे.
अशुद्धताने तो जगत अनुभवी ज रह्युं छे, पण शुद्ध आत्माने कदी जाण्यो नथी,