
आत्मानुं स्वरूप ज आराध्य छे. आ समाधिशतकमां ज आगळ ५३मी गाथामां कहेशे के
–जेने मोक्षनी अभिलाषा छे एवा जीवोए तो ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मानी ज कथा
करवी, बीजा अनुभवी पुरुषोने पण ते ज पूछवुं; ते आत्मस्वरूपनी ज प्राप्तिनी
ज्ञानमय जिनपदनी प्राप्ति थाय. आत्मार्थीने पोताना आत्मस्वरूपनी वात सिवाय
बीजी वातमां रस न होय...तेणे तो सर्वप्रकारे एक आत्मस्वरूपनी ज प्राप्तिनो उद्यम
कर्तव्य छे.
योग्य छे ते ज पूछवायोग्य छे, ते ज श्रवण करवायोग्य छे, ते ज अभ्यासवायोग्य छे,
ते ज उपार्जन करवायोग्य छे, ते ज जाणवायोग्य छे, ते ज कहेवायोग्य छे, ते ज प्रार्थना
करवायोग्य छे, ते ज शिक्षायोग्य (विनेय) छे, अने ते ज स्पर्शवायोग्य (अनुभवमां
ज उपादेय कह्यो छे; मुमुक्षुने तेनो घणो रस होय छे, तेथी सर्व प्रकारे तेने ज उपादेय
करीने, तेनी शांतिमां ठरे छे.
लब्धिसहित अक्षय अने उत्कृष्ट एवा मोक्षसुखने अल्पकाळमां प्राप्त करे छे. (आ श्लोक
सोनगढ–मानस्तंभमां पण कोतरेलो छे.)
तुं तारा शुद्ध आत्माने जाणीने तेनी सन्मुख था.
बाकी बधा संयोग–लक्षण भाव मुजथी बाह्य छे.
हुं एक शुद्ध सदा अरूपी ज्ञान–दर्शनमय खरे;
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे!