Atmadharma magazine - Ank 375
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : पोष : २५०१
तेथी जे सुखनो अभिलाषी छे तेणे तो शुद्ध आत्मानुं स्वरूप ज जाणवायोग्य छे, शुद्ध
आत्मानुं स्वरूप ज आराध्य छे. आ समाधिशतकमां ज आगळ ५३मी गाथामां कहेशे के
–जेने मोक्षनी अभिलाषा छे एवा जीवोए तो ज्ञान–आनंदस्वरूप आत्मानी ज कथा
करवी, बीजा अनुभवी पुरुषोने पण ते ज पूछवुं; ते आत्मस्वरूपनी ज प्राप्तिनी
भावना करवी, ने तेमां ज तत्पर थवुं,–के जेथी अविद्यामय एवी अज्ञानदशा छूटीने
ज्ञानमय जिनपदनी प्राप्ति थाय. आत्मार्थीने पोताना आत्मस्वरूपनी वात सिवाय
बीजी वातमां रस न होय...तेणे तो सर्वप्रकारे एक आत्मस्वरूपनी ज प्राप्तिनो उद्यम
कर्तव्य छे.
वळी “योगसार” मां पण कहे छे के–विद्वान पुरुषोए आ एक चैतन्यस्वरूप
आत्मा ज निश्चल मनथी पढवायोग्य छे, ते ज ध्यान करवा योग्य छे, ते ज आराधवा–
योग्य छे ते ज पूछवायोग्य छे, ते ज श्रवण करवायोग्य छे, ते ज अभ्यासवायोग्य छे,
ते ज उपार्जन करवायोग्य छे, ते ज जाणवायोग्य छे, ते ज कहेवायोग्य छे, ते ज प्रार्थना
करवायोग्य छे, ते ज शिक्षायोग्य (विनेय) छे, अने ते ज स्पर्शवायोग्य (अनुभवमां
लेवायोग्य) छे,–के जेथी आत्मा सदा स्थिर रहे.–आ रीते घणा बोलथी एक आत्माने
ज उपादेय कह्यो छे; मुमुक्षुने तेनो घणो रस होय छे, तेथी सर्व प्रकारे तेने ज उपादेय
करीने, तेनी शांतिमां ठरे छे.
श्री पद्मनंदी मुनिराज पण कहे छे के जे जीवो वारंवार आत्मतत्त्वनो अभ्यास
करे छे, कथन करे छे, विचार करे छे, सम्यक् प्रकारे भावना करे छे तेओ नव क्षायिक
लब्धिसहित अक्षय अने उत्कृष्ट एवा मोक्षसुखने अल्पकाळमां प्राप्त करे छे. (आ श्लोक
सोनगढ–मानस्तंभमां पण कोतरेलो छे.)
सर्व उपदेशनुं रहस्य शुं? के शुद्ध आत्मानी सन्मुख थईने तेने जाणवो. ते ज
सर्व शास्त्रोनो सार छे. आ सिवाय बहारना बीजा उपायथी सुख थवानुं जे कहेता होय
ते उपदेशक पण साचा नथी, ने तेनो उपदेश ते हितोपदेश नथी. हितोपदेश तो आ छे के
तुं तारा शुद्ध आत्माने जाणीने तेनी सन्मुख था.
मारो सुशाश्वत एक दर्शनज्ञानलक्षण जीव छे;
बाकी बधा संयोग–लक्षण भाव मुजथी बाह्य छे.
हुं एक शुद्ध सदा अरूपी ज्ञान–दर्शनमय खरे;
कंई अन्य ते मारुं जरी परमाणुमात्र नथी अरे!