
छ रूपिया पोष :
वर्ष ३२ ई. स. १९७५
अंक ३ जान्यु.
देखे, ने एवुं सुख थाय–के पछी चिन्तानुं कोई कारण न रहे. शुं आप चिन्ता
करो छो?–हा.... तो आ भजन वांचो, ने बधी चिन्ता छोडीने परिणतिने
आत्मामां जोडो.
निजमें सुखकी खान भरी है, क्या परका फिर काम,
बाहरके संयोगमें रे, देखो न आतमराम. चिन्ता०
अनुभवकी न्यारी दशा रे, आनन्दसे भरपूर,
जो निज अनुभव कर सको रे, चिन्दा भागे दूर. चिन्ता०
बाहरकी अनुकूलता हो, या प्रतिकूल संयोग,
ज्ञानीको तो सुखसागर रे अन्तरका उपयोग. चिन्ता०
शुद्ध अखंड स्वभावमें रे, क्षणिक विभाव अभाव,
चिन्ताका कारण बने रे असत् संयोगी भाव. चिन्ता०
तू यदि सुखको चाहता रे, परणति निजमें जोड,
चेतन! निज–वैभव तेरा रे, परसे नाता तोड......
चिन्ता छोडो रे भाई, निजमें देखो रे भाई!