Atmadharma magazine - Ank 375
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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वार्षिक लवाजम वीर सं. २५०१
छ रूपिया पोष :
वर्ष ३२ ई. स. १९७५
अंक ३ जान्यु.
जीवो घणी–घणी चिन्ताओ करी–करीने दुःखी थाय छे; पण एकवार
चिन्ता छोडीने उपयोगने अंतरमां जोडे तो एवी कोई अद्भुत निजवस्तुने
देखे, ने एवुं सुख थाय–के पछी चिन्तानुं कोई कारण न रहे. शुं आप चिन्ता
करो छो?–हा.... तो आ भजन वांचो, ने बधी चिन्ता छोडीने परिणतिने
आत्मामां जोडो.
चिन्ता छोडो रे भाई.... निजमें देखो रे भाई!
निजमें सुखकी खान भरी है, क्या परका फिर काम,
बाहरके संयोगमें रे, देखो न आतमराम. चिन्ता०
अनुभवकी न्यारी दशा रे, आनन्दसे भरपूर,
जो निज अनुभव कर सको रे, चिन्दा भागे दूर. चिन्ता०
बाहरकी अनुकूलता हो, या प्रतिकूल संयोग,
ज्ञानीको तो सुखसागर रे अन्तरका उपयोग. चिन्ता०
शुद्ध अखंड स्वभावमें रे, क्षणिक विभाव अभाव,
चिन्ताका कारण बने रे असत् संयोगी भाव. चिन्ता०
तू यदि सुखको चाहता रे, परणति निजमें जोड,
चेतन! निज–वैभव तेरा रे, परसे नाता तोड......
चिन्ता छोडो रे भाई, निजमें देखो रे भाई!
‘एक आत्मार्थी’ , गौहाटी–आसाम