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अहीं (स्वाध्याय मंदिरमां) बेठा होय त्यारे ज ते रहे ने बहार जाय त्यां ते छूटी
जाय! साचो निर्णय तो एवो होय के आत्मा ज्यां जाय त्यां साथे ज रहे; कोई
संयोगमां छूटे नहीं, केमके ते निर्णय संयोगना आधारे थयो नथी पण आत्माना
स्वभावमांथी आव्यो छे. ज्ञानीने जे भेदज्ञान थयुं छे ते सदाय सर्वप्रसंगे रहे छे;
तेणे आत्माने आत्मारूप जाण्यो ते कदी छूटतो नथी, ने परने पररूप जाण्या छे तेमां
कदी आत्मभाव थतो नथी.–
जाणे–जुए जे सर्व ते हुं–एम ज्ञानी चिंतवे.
आत्मामां नजर तो कर! तने तारुं अचलस्वरूप कोई परम अद्भुत देखाशे, ने तारा
आत्मामांथी तने मुक्तिसुखनो स्वाद आवशे.–आवा भेदज्ञानवाळो जीव प्रसंशनीय छे.
धनना ढगला घणा होय के शास्त्रनुं भणतर घणुं होय तेथी कांई जीव प्रशंसनीय नथी.
पण अंदर जेणे अतीन्द्रियज्ञानवडे चैतन्यतत्त्वनी अनुभूति करी छे ते जीव त्रणलोकमां
प्रशंसनीय छे. श्री कुंदकुंदस्वामी पण तेनी प्रशंसा करतां कहे छे के–
सम्यक्त्व–सिद्धिकर अहो! स्वप्नेय नहि दूषित छे.
ग्रहण करी ल्ये छे, ने परम सुखने अनुभवे छे. आत्मा चैतन्यवस्तु छे, असंख्य
प्रदेशनो पिंड छे, ज्ञान–सुख वगेरे अनंत स्वभावो तेमां भर्या छे; जेम चंदनमां सर्वत्र
सुगंध छे तेम चैतन्यमां सर्वत्र ज्ञान–आनंद छे; तेमां देह नथी, राग नथी. आवी
पोताना अनंत भावोथी भरेली एक चैतन्यवस्तु हुं छुं.–आम स्वसन्मुख थईने जे
सम्यग्ज्ञान थयुं ते अंदरना चैतन्यदरियामां ऊछळ्युं छे, चैतन्यना अनंतगुणना रसने
साथे लेतुं ते प्रगट्युं छे; भेदज्ञान छे ते आनंदसहित प्रगटे छे. जेम साकरनी मीठाश
ख्यालमां