: ४० : आत्मधर्म : पोष : २५०१
धर्म–अधर्म के काया–ते पण तुं नथी. –हे जीव! चेतनभाव सिवाय आमांथी एक
पण तुं नथी. (जीवना अशुद्धभाव, अने पांच अजीव, एनाथी भिन्न
शुद्धचेतनभाव ते तुं छो.)
३०. नथी तुं गोरो के नथी शामळो, एक पण वर्णवाळो तुं नथी; दुर्बळ अंग के स्थूळ
अंग ते तुं नथी, ते तो बधा वर्णसहित (जड) छे. तारुं स्वरूप तेनाथी जुदुं
जाण.
३१. वळी, श्रेष्ठ ब्राह्मण तुं नथी, वैश्य नथी, क्षत्रिय के अन्य पण तुं नथी. तेमज तुं
पुरुष–नपुंसक के स्त्री नथी. –एम विशेष जाण.
३२. हुं तरुण छुं, बूढो छुं के बाळक छुं, सूर छुं, दिव्यपंडित छुं, क्षपणक अर्थात्
दिगंबर छुं, वंदक छुं के श्वेतांबर छुं, –एवुं कांईपण तुं चिंतव मा.
३३. हे जीव! देहनां जरा–मरण देखीने तुं भय न कर; पोताना आत्माने तुं अजर–
अमर परमब्रह्म जाण.
३४. जरा अने मरण ए बंने शरीरनां छे, विचित्र वर्ण पण शरीरनां ज छे, वळी हे
जीव! रोगने पण तुं शरीरनो ज जाण, अने लिंगो पण शरीरनां ज छे.
३५. हे आत्मा! निश्चयथी तुं एम जाण के तेमांथी एक पण संज्ञा जीवने नथी;–जरा
के मरण बंने नथी, रोग नथी, ने लिंग के वर्ण पण नथी.
३६. कर्म केरा भावने जो तुं आत्मा कहे छे तो तुं परमपदने नहीं पामी शके, परंतु
हजी पण संसारमां भ्रमण करीश.
३७. ज्ञानमय आत्मा सिवाय बीजा बधा भावो पराया छे; तेमने छोडीने हे जीव! तुं
शुद्धस्वभावने ध्याव.
३८. जे वर्णरहित छे, जे ज्ञानमय छे, जे सद्भावने भावे छे, जे संत अने निरंजन
छे ते ज शिव छे (कल्याणरूप छे), माटे तेमां ज अनुराग करो.
३९. त्रण भुवनमां देव तो जिनवर देखाय छे, अने जिनवरदेवमां आ त्रणभुवन
देखाय छे; जिनवरना ज्ञानमां सकळ जगत देखाय छे, तेमां कोई भेद करवो नहीं.
४०. कोई कहे छे के हे जीवो! तमे जिनने जाणो....जाणो! परंतु जो ज्ञानमय आत्माने
देहथी अत्यंत जुदो जाणी लीधो, तो पछी भला! बीजुं शुं जाणवानुं बाकी रह्युं?
४१. कोई कहे छे के हे जीवो! तमे जिनने वंदो......जिनने वंदो.–परंतु जो पोताना देहमां
ज रहेला परमार्थने जाणी लीधो, तो पछी भला! बीजा कोने वंदवानुं बाकी रह्युं?