: पोष : २५०१ आत्मधर्म : ३ :
सर्वज्ञस्वभावी आत्मा
दिव्य ज्ञानस्वभावी आत्मा ते जैनशासननुं महान रत्न छे.
तेने जेणे जाणी लीधुं तेणे समस्त जैनशासनने जाणी लीधुं
(पू. गुरुदेवश्रीना प्रवचनसार गाथा ४९ परनां प्रवचनोमांथी)
उपयोगस्वरूपी आत्मा, सर्वने जाणनार एवा सर्वज्ञस्वभावी छे; आवा
पोताना सर्वज्ञस्वभावने जे न जाणे, न अनुभवे ते सर्व पदार्थोने पण जाणी शकतो
नथी. आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे–एम जे स्वसंवेदनथी जाणे छे ते जीव बधाय जीवोने
ज्ञानस्वरूपी जाणे छे. ज्ञानअपेक्षाए बधाय जीवो साधर्मी–समानधर्मी छे.
‘सर्व जीव छे ज्ञानमय, एवो जे समभाव;
ते सामायिक जाणवुं, भाखे जिनवरराय.’
जे ज्ञान सामान्य छे ते पोताना अनंतज्ञान विशेषोमां व्यापनारुं छे; ज्ञान
सामान्य पोते अनंत विशेषोरूपे परिणमे छे. केवळज्ञान अनंतविशेषोरूप महान ज्ञान
छे, तेमां ज्ञानस्वभाव व्यापे छे. जो के मति–श्रुतज्ञानमां पण अनंत विशेषो छे, पण
केवळज्ञान सर्वोत्कृष्ट छे; समस्त पदार्थोनो प्रतिभास जेमां एकसाथे भर्यो छे एवुं
अद्भुत अनंत विशेषोस्वरूप केवळज्ञान, तेमां सर्वज्ञस्वभावी महासामान्य ज्ञान
व्यापेलुं छे; ने ते आत्मानो स्वभाव ज छे.–आवा आत्माने जे स्वानुभव–प्रत्यक्ष नथी
करतो तेने सर्वज्ञपणुं होतुं नथी.
जुओ, ८० मी गाथामां कह्या प्रमाणे अरिहंतदेवना चैतन्यरूप द्रव्य–गुण–
पर्यायने जाणे तेमां आवा सर्वज्ञस्वभावी आत्मानुं ज्ञान भेगुं आवी ज जाय छे. अरे,
सर्वज्ञतानी ताकातनी शी वात! राग जेने झीली शके नहि, ने रागनो कण जेमां समाय
नहि–एवा सर्वज्ञस्वभावने तो स्वसन्मुख अतीन्द्रियज्ञान ज झीली शके छे. अरे, सर्वज्ञ
अरिहंतने पोताना ज्ञानमां समाडवा–ए ते कांई साधारण वात छे!
भाई, तारी ज्ञानपर्यायमां तारा ज्ञानस्वभावने ज व्यापेलो देख.
तारी ज्ञानपर्यायमां परवस्तुने के रागने व्यापेलो न देख.
अहा, आवो ज्ञानस्वभाव नक्की करे त्यां तो परथी ने रागथी ज्ञान छूटुं पडी
जाय, भेदज्ञान थईने मोक्षमार्ग ऊघडी जाय.