अचेतन पदार्थो ज्ञानमां व्यापीने तन्मय थाय तो ज्ञान पण अचेतन थई जाय.
पण ज्ञानमां व्यापेला नथी. जो ज्ञानमां राग–द्वेष व्यापेला होय तो, ते राग–द्वेष
छूटी जतां ज्ञान पण छूटी जाय, राग–द्वेष वगर ज्ञाननुं अस्तित्व रही न शके.–
परंतु राग–द्वेषना अभावमांय ज्ञान तो पोताना सर्वज्ञस्वरूपे शोभी रहे छे.
माटे ज्ञानमां राग–द्वेष व्यापेला नथी. पछी पूजा–भक्तिनो शुभराग हो, के
विषय–कषायनो पाप–राग हो, ते ज्ञाननुं स्वरूप नथी.
उत्पन्न थाय छे, त्यां पूर्वनी पर्याय ते पछीनी पर्यायमां व्यापती नथी; मति–
श्रुतज्ञान छूटीने केवळज्ञान थयुं त्यां ते केवळज्ञानमां मति–श्रुतज्ञानपर्याय
व्यापती नथी, एटले पर्यायना खंडखंड सामे जोवानुं रहेतुं नथी. बे समयनी
पर्यायो कदी एक थती नथी.
विशेषज्ञानपर्याय जेने अवलंबीने प्रवर्ते छे! विशेष वखते ज आत्मानो
ज्ञानसामान्यरूप महान स्वभाव छे ते ज विशेषोमां व्यापे छे. ज्यारे जुओ
त्यारे ते पोतामां विद्यमान ज छे. अनादिअनंतकाळनी जे विशेष ज्ञानपर्यायो
(–जेमां भविष्यनी अनंत–केवळज्ञानपर्यायो पण आवी जाय छे–ते समस्त
पर्यायो) मां व्यापे एवो एक ज्ञानस्वभावी आत्मा हुं छुं–एम धर्मीजीव
स्वसंवेदनप्रत्यक्ष वडे पोताना आत्माने जाणे छे. पोताना सामान्य अने विशेष
बंनेमां तेने ज्ञान ज देखाय छे.
जाणतो नथी ते सर्वज्ञदेवने के गुरुने के शास्त्रना तात्पर्यने पण जाणी शकतो
नथी. पोताना ज्ञानमां ज्यां पोतानो सर्वज्ञस्वभाव जाण्यो त्यां पंचपरमेष्ठीनी
के नवतत्त्वोनी साची ओळखाण थई. आवा स्वभावने जाणनारी
श्रुतज्ञानपर्यायमां पण अतीन्द्रिय शांति–