Atmadharma magazine - Ank 376
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 25 of 47

background image
: २२ : आत्मधर्म : महा : २५०१
अहो, अनंतधर्म जेमां समायेला छे एवी अनेकान्तवस्तुनुं स्वरूप घणुं गंभीर
छे, भगवान सर्वज्ञदेवे जिनशासनमां तेनुं अलौकिकस्वरूप बताव्युं छे. अरे,
चैतन्यस्वरूप आत्माना अस्तित्वनो निर्णय करवा जाय–तेमां पण जीव–अजीवादि बधा
तत्त्वोनुं ज्ञान गर्भितपणे समाई जाय छे. वस्तुस्वरूपनो एक बोल नक्की करवा जाय
त्यां तेमां अनंतगुणनी गंभीरता पोताने भासे छे. ओहो! आ तो सर्वज्ञदेवे प्रकाशेलुं
आत्मानुं स्वरूप!–पोताना ज्ञानना वेदनमां आवी शके तेवुं छे. स्वसंवेदनथी आवा
स्वतत्त्वनो निर्णय करे त्यां पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायरूप सर्वस्व पोतामां जोयुं, ने
पोताना कोईपण द्रव्य–गुण के पर्यायने परमां शोधवानुं न रह्युं. आवा अनेकान्तना
बळथी भेदज्ञान करतां स्वाश्रयभावरूप निर्मळ ज्ञानआनंदरूप परिणमन थयुं, तेमां
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्ग आव्यो; ते जीवे स्वघरमां अपूर्व वास्तु कर्युं.
पोताना द्रव्य–गुण–पर्यायस्वरूपे वस्तुनुं अस्तिपणुं ज छे, ने अन्य द्रव्य–गुण–
पर्यायस्वरूपे वस्तु नास्तिरूप ज छे,–आवुं जे अनेकान्ततत्त्व सर्वज्ञदेवना शासनमां
प्रकाश्युं छे ते एकांतवादना मोहरूप समस्त विरोधविषने दूर करनारुं छे ने
चैतन्यतत्त्वनो सम्यक् निर्णय करावीने आत्मानुं अमृत चखाडनारुं छे.
अहो, अनेकान्त तो चैतन्यना आनंदरसना अमृत पीवडावे छे.
* ज्यां पोतानुं बधुं स्वरूप पोतामां छे त्यां पोतामां ज जोवानुं रह्युं.
* ज्यां पोताना स्वरूपनो कोई अंश बीजामां नथी त्यां बीजामां जोवानुं न रह्युं.
–आ रीते अस्ति–नास्तिरूप अनेकान्तस्वरूपनो निर्णय करतां पराश्रयबुद्धिरूप
झेर नष्ट थई जाय छे; ने स्वाश्रये सम्यग्दर्शनादि अमृत प्रगटे छे.
अहो, वीरनाथ! आपनुं अनेकान्तशासन कोई अद्भुत अलौकिक छे...जीवने
महान आनन्द देनारुं छे.
मारुं अस्तित्व मारामां ने मारुं अस्तित्व परमां नहि–एवा निर्णयमां बधा
तत्त्वोनो निर्णय आवी जाय छे.
मारुं अस्तित्व मारामां, एटले मारा द्रव्य–गुण–पर्याय मारामां, माराथी ज सत्
छे;–एटले उपादाननो आश्रय थयो.
मारुं तत्त्व परमां नास्तिरूप छे एटले मारा कोई द्रव्य–गुण–पर्याय परथी थता
नथी, एवा निर्णयमां निमित्ताधीन वृत्ति छूटी गई, ने स्वाश्रये आत्माना अतीन्द्रिय–