Atmadharma magazine - Ank 376
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: २४ : आत्मधर्म : महा : २५०१
चैतन्यना आनंदना अतीन्द्रियअमृतथी भरेलुं आवुं अनेकान्तज्ञान भव्य जीवो
जिनशासनना वशे पामो...जिनशासननो आश्रय करीने सम्यग्ज्ञान वडे महा आनंदमय
स्व–तत्त्वने आजे ज अनुभवो.
ए ज भगवान महावीरनो सन्देश छे.
ए ज निर्वाणनो मंगल उत्सव छे.
सुख माटे शरण: शुद्धोपयोग–वीतरागता
शुभ के अशुभ, पुण्य के पाप, तेनुं फळ तो दुःख छे, ते बंनेथी
रहित एवो शुद्धउपयोग ज स्वयं सुख छे. माटे आ एक शुद्धोपयोग ज
मारुं शरण छे.
विदितार्थ ए रीत राग–द्वेष लहे न जे द्रव्यो विषे,
शुद्धोपयोगी जीव ते क्षय देहगत दुःखनो करे. (७८)
छठ्ठा गुणस्थाननो शुभराग पण महा दुःखसंकटनुं कारण छे–
त्यां बीजा राग–द्वेषभावोनुं तो शुं कहेवुं? ए तो दुःख छे ज.–
–तेथी न करवो राग जरीये क्यांय पण मोक्षेच्छुए,
वीतराग थईने ए रीते ते भव्य भवसागर तरे (२७२)
* स्व–परिवारनी संभाळ *
हे भाई, जगतना बाह्य परिवार करतां अंतरमां तारा आत्मानो
गुणपरिवार घणो मोटो छे, एटलुं ज नहि पण ते अत्यंत नजीकनो,
सदाय साथे रहेनारो परिवार छे. तो आवा मोटा नजीकना स्वपरिवारने
भूलीने तुं बाह्यपरिवारमां कां मोह्यो? एकवार तारा आत्मपरिवारने
संभाळ तो खरो! ते तारो परिवार तने महान आनंद आपशे.