: महा : २५०१ आत्मधर्म : २७ :
वीतराग मुनिओनी के अरिहंतोनी आज्ञा मानी नथी बापु! मोक्षमार्गमां अमे
शुभरागनी प्रशंसा नथी करता, अमे तो वीतरागी ज्ञाननी ज प्रशंसा करीए छीए.
चोथा गुणस्थाने जे सम्यग्ज्ञान छे ते पण रागथी भिन्न होवाथी वीतरागी ज छे.–आ
सम्यग्ज्ञाननो महिमा तो जाणे नहि ने बहारमां शुभरागनो महिमा करीने तेमां
एकाकार रहे तेवा जीवोए भगवान अरिहंतना मार्गने जाण्यो नथी, मुनिओए ते
ओळखतो नथी, ने मुक्तिमार्गने पण ते जाणतो नथी, भाई! मुक्तिना मारगडा अंदर
चैतन्यना स्वभावमांथी आवे छे, रागमांथी नथी आवता.
आत्माना साचा ज्ञान वगर रागनी मीठाश छूटे नहि ने विषयोनी चाहरूपी
आग बुझाय नहीं. ज्यां चैतन्यनी शांतिरूप मेघजळ नथी त्यां विषयोमां बळता
जीवोनी आग क्यांथी बुझाय? बापु! आत्माने भूलीने तुं संसारमां रागनी आगमां
बळी रह्यो छो, [राग आग दहे सदा, तातें समामृत सेवोए] शुभ के अशुभ राग ते
आग छे, तेमां तुं सदा बळी रह्यो छो, माटे ज्ञानरूपी अमृतनुं सींचन करीने तेने शांत
कर. बीजा कोई उपाये ते बुझाय तेम नथी. ज्ञानवडे अंतरमां ऊतरीने चैतन्यनी
शांतिना समुद्रमां डुबकी मार, तो बाह्यविषयोनी चाहना मटी जशे ने तने परम
शांतिनुं वेदन थशे. महा शांतिनो सागर चैतन्य–आत्मा छे, तेना शांतरसना सींचन
वडे विषयोनी आग बुझाई जशे ने चैतन्यनी परम शांति तने अनुभवाशे. माटे तुं
सम्यग्ज्ञाननी आराधना कर.
अहीं आत्माना सम्यग्ज्ञाननो महिमा बतावीने तेनी आराधना करवानुं कहे छे.
–कोण कहे छे? मुनिओना नाथ कहे छे, एटले के जिनेन्द्रदेव अने गणधरदेव आ
सम्यग्ज्ञाननो महिमा कहे छे. हे भव्य जीवो! भेदज्ञानवडे ज कल्याण सधाय छे, माटे
तमे करोडो उपाय वडे पण आत्माने जाणीने सम्यग्ज्ञान प्रगट करो.
* सौए साधवा जेवो एक मंत्र *
गृहस्थोने विधविध प्रकृतिवाळा अनेक माणसोना परिवार वच्चे रहेवानुं होय
छे, अने छतां परिवारमां स्नेह–शांति–प्रेम रह्या करे ते जोवानुं होय छे. तो ते कई रीते
रही शके? तेनो एक मंत्र जाणवा जेवो छे.
एक सद्गृहस्थ सेंकडो माणसोना परिवार वच्चे रहेता हता; विधविध प्रकृतिना
नाना–मोटा माणसोमां रोजरोज अवनवा प्रसंगो बनता, छतां परिवारमां सर्वत्र
शांतिनुं वातावरण रहेतुं हतुं–आ कारणे ए परिवारनी प्रशंसानी सौरभ सर्वत्र प्रसरी
गई हती.