: महा : २५०१ आत्मधर्म : ३१ :
तेने कहेवाय के जेमां आवुं सुख मळे. ‘ज्ञाननो प्रकाश’ कहो ‘चैतन्यधाम’ कहो के
अतीन्द्रियसुख कहो,–ते ज आत्मानुं स्वघरमां वास्तु छे. बाकी राग अने तेनां फळ
स्वर्गादि ते तो परघर छे, तेमां वास्तु ते तो दुःख छे. स्वघर चैतन्यधाम, तेने
ओळखतां ने तेमा वसतां ज्ञानप्रकाश प्रगट्यो ने अतीन्द्रिय सुख थयुं–ते धर्मीनुं अपूर्व
वास्तु छे.
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मारा कर्ता–कर्म–क्रिया ने तेनुं फळ बधुं मारा आत्मामां छे, पुद्गलमां ते नथी.
आम स्व–परनुं भेदज्ञान करीने, पोतानी पर्यायोने पोतामां ज अंतर्लीन करतो जीव,
अन्यना संगथी रहित शुद्धतारूपे परिणमे छे.
आ रीते स्व–पर तत्त्वनी वहेंचणी करीने स्वज्ञेयरूप आत्मानुं शुद्धपणुं (एटले
के परथी जुदापणुं) नक्की कर्युं; शुद्धआत्माना निश्चयवडे ज्ञानतत्त्वनी सिद्धि थई,
शुद्धात्मानी अनुभूति थई, सम्यग्दर्शन थयुं.....हवे ते जीव अन्यरूपे नहि परिणमतो
थको शुद्धआत्माने अनुभवतो थको मोक्षने साधे छे. आ रीते शुद्धआत्मानो निर्णय
करवो ते प्रशंसनीय छे. एवो निर्णय करनार जीवने सम्यक्त्वादि आनंदमय
स्वपरिणति थई छे ने तेने ते पोते स्वसंवेदनथी अनुभवे छे.
अहो, जेणे परथी भिन्न शुद्धात्मतत्त्वनो निश्चय करीने सम्यग्ज्ञान प्रगट कर्युं, ने
पर्यायने अंतरमां लीन करीने आत्माने शुद्धपणे अनुभवमां लीधो ते जीवने कुंदकुंद–
स्वामी जेवा संतो पण धन्यवाद आपे छे, तेनी प्रशंसा करे छे.–
‘कर्ता–करम–फळ–करण जीव छे ’ एम जो निश्चय करी,
जीव अन्यरूप नव परिणमे, प्राप्ति करे शुद्धात्मनी. (१२६)
स्व–परनी अत्यंत भिन्नतानुं ज्ञान कर्युं त्यां परद्रव्य साथेनो संबंध न रह्यो,
एटले पोतानी पर्यायो पोताना स्वद्रव्यमां ज अभेदपणे लीन थई, एटले
शुद्धपरिणमन थयुं, ए ज शुद्धात्मानी उपलब्धि छे, ने ते प्रशंसनीय छे.
पहेलांं अज्ञानथी पर साथे संबंध मानतां आत्मानी परिणति रागथी रंगायेली
मलिन हती, त्यारे पण ते पोते ज एकलो ज विकारी चैतन्यभावरूपे परिणमतो थको ने
दुःखफळ भोगवतो थको संसारमां रखडतो हतो; त्यारे पण बीजुं कोई तेनुं न हतुं.
अने हवे भेदज्ञानवडे पोताने परथी अत्यंत भिन्न जाणीने, पर साथे संबंध
वगर पोते पोतानी शुद्धचेतनापरिणतिरूपे परिणम्यो, त्यारे आ मोक्षनी साधकदशामां