: महा : २५०१ आत्मधर्म : ३३ :
एक नानोशो धरतीकंप थतां केवी मोटी उथलपाथल थई जाय छे ते जगतने
देखाय छे...
एवी रीते आत्मा ज्यारे पोतानुं आत्महित करवा माटे मोहकर्मना हिमालय
उपर शुद्धोपयोगरूप वज्रनो प्रहार करे छे, ने सम्यग्दर्शन प्रगट करे छे त्यारे अंतरमां
असंख्य चैतन्यप्रदेशोमां अभूतपूर्व धरतीकंपवडे केवी मोटी उथलपाथल थाय छे–ते तो
ज्ञानी ज जाणे छे.–अने एवा धरतीकंपना समाचार लौकिक समाचारपत्रोमां तो क््यांथी
आवे? आपणुं ‘आत्मधर्म’ एक ज एवुं पत्र छे के ते एवा अभूतपूर्व धरतीकंपना
समाचार आपी शके छे.
कोई अपूर्व धन्यपळे चैतन्यना असंख्यप्रदेशमां सम्यग्दर्शन थतां मोहपर्वतमां
एवी मोटी तीराड पडी गई के हवे फरी कदी संधाशे नहि. पर्वतना बे कटका थया ते
रेणवडे संधाय नहि तेम भेदज्ञानरूपी धरतीकंपवडे ज्ञान अने रागनी सांध तूटीने बे
कटका थया, तेने हवे फरीने कदी एकता थाय नहि. सम्यग्दर्शननो धरतीकंप थतां ज
आत्मानी परिणतिए पोतानुं वहेण बदल्युं,–पर तरफ जता वहेण हवे पलटीने
अंतरमां स्वतरफ वळ्या; पहेलांं ज्यां कषायनुं धखधखतुं रण हतुं. त्यां हवे शांतिनुं
सरोवर रचाई गयुं. अनंतानुबंधीथी वसेला बधाय गामो (मिथ्यात्वादि कर्मो) नाश
पामी गया. आखो हिमालय कटकेकटका थईने ऊडी जाय तेना करतांय मोटो धरतीकंप
चैतन्यना असंख्यप्रदेशे अनुभूतिमां सम्यग्दर्शन थतां थई जाय छे, पण ए परिवर्तन
अंदरनी अनुभूतिमां ज देखाय छे. महान उथलपाथल थई जाय छे. चैतन्यना ए
धरतीकंपनो एक नानोशो आंचको पण आखा संसारनो दरियो उथलावीने सिद्धपदनुं
शिखर ऊभुं करी देवानी ताकातवाळो छे. बहारना त्रणलोकना खळभळाट करतांय
मोटो ए वखते चैतन्यमां आनंदनो कोई जुदो ज खळभळाट थाय छे. वाह, चैतन्यना
ए धरतीकंपनी शी वात!!
[पृष्ठ–३५ नुं चालु]
बंधुओ, तमे उत्साही छो, बुद्धिमान छो, शक्तिवाळा छो....ते शक्ति–बुद्धि–
उत्साहनो सर्वोत्तम उपयोग करी तमे वीरमार्गमां प्रगती करी शको एवो आ निर्वाण–
महोत्सवनो अवसर छे.–अवसर चुकशो मा!–धन्यवाद!
[हाल टूंकामां पांच वात लखी छे. विशेष अवारनवार तमारो उत्साह देखीने
लखता रहेशुं....ने तमने मार्गदर्शन आपता रहेशुं, तमे पण विचारो, तमारा प्रश्नो,
तमारी उमंगभरी भावनाओ अमने लखजो, जयमहावीर –तमारो भाई: हरि.