: फागण : २५०१ आत्मधर्म : ३ :
५५. शिव वगर शक्तिनो व्यापार थई शकतो नथी, ने शक्ति वगरना शिव कांई करी
शकता नथी; बंनेनुं मिलन थतां मोहनो विलय थईने सकळ जगतनो बोध
थाय छे. (गुण–गुणी सर्वथा जुदा रहीने कंई कार्य करी शकता नथी; बंने अभेद
थईने ज कार्य करी शके छे,–एम वस्तुस्वरूप अने जैनसिद्धांत छे.)
५६. तारो आत्मा ज्ञानमय छे, तेना भावने ज्यां सुधी नथी देख्यो त्यांसुधी चित्त
बिचारुं दग्ध अने संकल्प–विकल्प सहित अज्ञानरूप वर्ते छे.
५७. नित्य निरामय ज्ञानमय परमानंदस्वभावरूप उत्कृष्ट आत्मा जेणे जाणी लीधो
तेने अन्य कोई भाव रहेतो नथी. (अर्थात् अन्य समस्त भावोने ते पारका
समजे छे.)
५८. अमे एक जिनने जाण्या त्यां अनंत देवने जाणी लीधा; एने जाण्या विना
मोहथी मोहित जीव दूर भमे छे.
५९. केवळज्ञानमय आत्मा जेना हैडामां वसे छे, ते त्रणलोकमां मुक्त रहे छे, ने तेने
पाप लागतुं नथी.
६०. बंधनना हेतुने जे मुनि चिंतवतो नथी, कहेतो नथी के करतो नथी (अर्थात्
मनथी–वचनथी–कायाथी बंधना हेतुने सेवतो नथी) ते ज केवळज्ञानथी स्फूरित
शरीरवाळो परमात्म–देव छे.
६१. ज्यां अभ्यंतर चित्त मेलुं छे त्यां बहारना तपथी शुं फायदो? माटे हे भव्य!
चित्तमां कोई एवा निरंजन तत्त्वने धारण कर–के जेथी ते मेलथी मुक्त थई जाय.
६२. विषय–कषायोमां जता मनने पाछुं वाळीने निरंजन तत्त्वमां स्थिर करो.–बस!
आटलुं ज मोक्षनुं कारण छे; बीजा कोई तंत्र के मंत्र मोक्षनां कारण नथी
६३. अरे जीव! खातां पीतां पण जो तुं शाश्वत मोक्षने पामी जा तो, भट्टारक
ऋषभदेवे सकळ ईन्द्रियसुखोने केम छोड्या?
६४. हे वत्स! ज्यांसुधी तारुं चित्त निरंजन परमतत्त्व साथे समरस–एकरस नथी
थतुं त्यांसुधी ज देहवासना तने सतावे छे.
६५. जेना मनमां, सर्वे विकल्पोने हणनारुं ज्ञान स्फूरतुं नथी, ते बीजा बधा धर्मो करे
तोपण नित्य सुखने क््यांथी पामे?
६६. सकळ चिंताओने छोडीने जेना मनमां परमपदनो निवास थयो ते जीव आठे
कर्मोने हणीने परम गतिने पामे छे.