: ४ : आत्मधर्म : महा : २५०१
जोग धरुंगी....बाबुल हट तजो....जूठा है संसार....बाबुल हट तजो...१
जोग विसारो....बेटी राजमती...मत जाओ गीरनार...बेटी राजमती...२
ये संसार असार है बाबुल...मोहजाल दुःखभार....बाबुल हट तजो...३
और ढुंढाउं वर अति सुंदर...धन वैभव बलकार....बेटी राजमती...४
पति सती के एक ही होता...और पिता सुत भ्रात...बाबुल हट तजो...५
जब लग सात फिरे नहीं फेरे...तब लग कुंवारी मान...बेटी राजमती...६
ये सब थोथीं बातें बाबुल....कुल–मर्याद विचार....बाबुल हट तजो...७
जीवनमें सुखभोग भोग कयों.....दे रही मूढ विसार...बेटी राजमती....८
भोग रोगका घर है बाबुल...भोग नरक को द्वार....बाबुल हट तजो...९
ये यौवन...ये रूप संपदा....मिले न वारंवार....बेटी राजमती...१०
हाड–मांस पर चाम चमक है...क्षणमें विणसनहार..बाबुल हट तजो...११
क्या यही है धर्म सुताका...करे पितासें राड....बेटी राजमती....१२
राह नहीं, है धर्म सतीका...हितकर धर्म चितार...बाबुल हट तजो....१३
कठिन जोग तप त्याग है बेटी...फिरसे सोच विचार...बेटी राजमती...१४
धन्य ‘सौभाग्य’ मिला संयमका....सफल करुं पर्याय....बाबुल हट तजो...१५
धन्य है तेरी द्रढता बेटी...जाओ खुशी गीरनार...देवी राजमती...१६