: ८ : आत्मधर्म : फागण : २५०१
बहार कोई पण जई शकतुं नथी.
९०. आत्मा आत्मामां ज परिस्थित थतां तेने कंई लेप लागतो नथी, अने तेने जे
कांई महान दोष होय ते पण बधा छेदाई जाय छे.
९१. हे योगी! योग लईने पछी जो तुं धंधामां नहि पड, तो जेमां तुं रहे छे ते देहरूप
कूटिरनो क्षय थई जशे, ने तुं तो अक्षय रहीश.
९२. अरे मनरूपी हाथी! तुं ईंद्रियविषयना सुखोमां रति न कर. जेनाथी निरंतर
सुख न थाय तेने तुं क्षणमात्रमां छोडी दे.
९३. न राजी था, न रोष कर, न क्रोध कर. क्रोधथी धर्मनो नाश थाय छे; धर्मना
नाशथी नरकगति थाय छे, अने मनुष्यजन्म निष्फळ जाय छे.
९४. साडात्रण हाथनी देरीमां संत–निरंजन वसे छे; बालजीवो तेमां प्रवेश करी
शकता नथी; तुं निर्मळ थईने तेने गोत.
९५. मनने सहसा पाछुं वाळी लेतां आत्मा अने परनी भेळसेळ थती नथी, परंतु
जेनामां आटलीये शक्ति नथी–ते मूर्ख योगी शुं करशे?
९६. योगी जे निर्मळ ज्योतिने जगावे छे ते योग छे; पण जे ईंद्रियोने वश थई जाय
छे ते तो श्रावकलोक छे.
९७. हे जीव! तुं घणुं पढयो....पढी–पढीने ताळवु पण सुकाई गयुं,–छतां तुं मूर्ख ज रह्यो.
–एना करतां तो ते एक ज अक्षरने पढ के जेनाथी शिवपुरीमां गमन थाय.
९८. श्रुतिओनो पार नथी, काळ थोडो छे, अने आपणे मंदबुद्धि छीए; तेथी एटलुं
ज शीखवा योग्य छे के जेनाथी जन्म–मरणनो क्षय थाय.
९९. निर्लक्षण (ईंद्रियग्राह्य लक्षणोथी पार), स्त्रीथी रहित, अने जेने कोई कूळ नथी
–एवो आत्मा मारा मनमां वसी गयो छे; ते कारणे हवे, ईंद्रियविषयोमां
संस्थित मारुं मन त्यांथी पाछुं वळी गयुं छे.
१००. हुं सगुण छुं, अने मारा पियु तो निर्गुण, निर्लक्षण तथा निःसंग छे; तेथी, ते
एक ज अंगमां वसतां होवा छतां एकबीजाना अंगे–अंगनुं मिलन नथी थतुं.
(रजोगुण–तमोगुण वगेरे गुणवाळी विकारी पर्याय, अने शुद्ध आत्म–पियु–ए
बंने एक वस्तुमां रहेतां होवा छतां तेमने एकरूपता थती नथी.–आवो भाव
समजाय छे.