जिनमार्गी सन्तो आवी अपूर्व शांतिने पाम्या छे, ने एवी
पामवा माटे आत्माने ओळखो. आत्मानी ओळखाण करावनारुं
सुगम शास्त्र ‘समाधिशतक’ तेनां प्रवचनोनुं दोहन आप वांची
रह्या छो.
जे जीव बाह्यद्रष्टिवाळो अविद्धान छे, चेतन अने जडनी भिन्नतानुं जेने भान
आत्माने तिर्यंच माने छे, देवशरीरमां रहेला आत्माने देव माने छे, तथा नारकशरीरमां
रहेला आत्माने नारक माने छे; परंतु आत्मा तो ते देहथी जुदो अनंतानंत ज्ञानादि
शक्तिसंपन्न, स्वसंवेद्य अचल स्थितिवाळो छे, तेने ते जाणतो नथी. शरीर तो टूंकी
मुदतवाळुं जड छे, ने आत्मा तो सळंग स्थितिवाळो चैतन्यशक्तिसंपन्न छे,–एम बंनेनी
भिन्नताने अज्ञानी ओळखतो नथी. ए प्रमाणे चिदानंदशक्तिसंप
अविद्वान ज छे, चैतन्यविद्यानी तेने खबर नथी. ज्ञानी तो पोताने देहथी भिन्न, एक
चैतन्यभावरूपे ज सदा अनुभवे छे.
आत्मा रह्यो त्यां, आत्मा ज जाणे के देवशरीररूपे थई गयो–एम ते अज्ञानी माने छे;
अने ए ज प्रमाणे मनुष्य के नारकशरीरमां रहेला आत्माने, मनुष्य के नारकीरूप माने