Atmadharma magazine - Ank 377
(Year 32 - Vir Nirvana Samvat 2501, A.D. 1975)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : फागण : २५०१
छे; पण आत्मा तो अरूपी, ज्ञान–आनंदस्वरूप छे, एम ते अज्ञानी जाणतो नथी.
आत्मा तो देहथी तद्न भिन्न छे; जुदाजुदा शरीरो धारण करवा छतां आत्मा पोताना
चैतन्यस्वरूपे ज रह्यो छे, चैतन्यस्वरूपथी छूटीने जडरूप कदी थयो ज नथी.











आत्मा पोते तो ज्ञानस्वरूप ज छे, ते कांई मनुष्य वगेरे देहरूपे थयो नथी.
मनुष्य–तिर्यंच–देव–नारक एवां नाम तो आ शरीरना संयोगथी छे; कर्मनी उपाधिथी
रहित आत्माना स्वरूपने जुओ तो ते ज्ञान–आनंदस्वरूप ज छे; मनुष्य वगेरे शरीर के
तेनी बोलवा–चालवानी क्रिया ते कांई आत्मा नथी, ते तो अचेतन जडनी रचना छे.
देहथी भिन्न, अनंत चैतन्यशक्तिसंपन्न अरूपी आत्मा छे, ते आंख वगेरे ईन्द्रियोथी
देखातो नथी, ते तो अंतरना अतीन्द्रिय स्वसंवेदनथी ज जणाय छे.
देहादिथी भिन्न चिदानंदस्वरूप आत्मा श्रीगुरुए बताव्यो छे; ते स्वरूपने जे
समजे तेने श्रीगुरु प्रत्ये बहुमाननो यथार्थ भाव आवे छे के अहो! चिदानंदस्वरूप
आत्मा श्रीगुरुए मने परम अनुग्रह करीने बताव्यो. पोताने स्वसंवेदन थाय त्यारे
ज्ञानी–गुरुनी खरी ओळखाण थाय अने तेमना प्रत्ये खरी भक्ति आवे. शुभरागवडे
पण चिदानंदस्वरूप आत्मा ओळखाय तेवो नथी, अने पोताना आत्माने ओळख्या
वगर सामा आत्मानी ओळखाण पण थाय नहि.