मारा ज्ञानानंदस्वरूपथी हुं कदी च्युत थतो नथी. आवा ज्ञानानंदस्वरूपनी जे सम्यक्श्रद्धा
अने ज्ञान थयुं तेनाथी डगाववा हवे जगतनी कोई प्रतिकूळता समर्थ नथी;
ज्ञानस्वरूपना आश्रये जे सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान थया ते हवे आत्माना ज आश्रये अचल
टकी रहे छे, कोई संयोगना कारणे श्रद्धा–ज्ञान चलायमान थता नथी. आवा
स्वसंवेदनथी आत्मना वास्तविक स्वरूपनी ओळखाण करवी ते बहिरात्मपणाथी
छूटवानो ने अंतरात्मा (धर्मात्मा) थवानो उपाय छे, अने पछी आत्माना
चैतन्यस्वभावमां लीन थईने पोते परमात्मा बनी जाय छे.
भिन्नता छे. जेम एक कषाई जेवो जीव अने बीजो सज्जन–ए बंने एक घरमां भेगा
रह्या होय, पण बंनेना भावो जुदा ज छे; तेम आ लोकमां जड शरीरादि अने आत्मा
एकक्षेत्रे रह्या होवा छतां बंनेना भावो तद्न जुदा छे, आत्मा पोताना ज्ञान–आनंद
वगेरे भावमां रह्यो छे, ने कर्म–शरीरादि तो पोताना अजीव–जड भावमां रह्या छे,
बंनेनी एकता कदी थई ज नथी. सदाय अत्यंत भिन्नता ज छे.
साथे एकता करीने तेना आनंदनुं ज्यां स्वसंवेदन कर्युं त्यां बाह्य पदार्थो अंशमात्र
पोताना भासता नथी, ने तेमां क््यांय सुखबुद्धि रहेती नथी. चैतन्यनुं सुख चैतन्यमां
ज छे–एनो स्वाद जाण्यो त्यां संयोगनी भावना रहेती नथी.
पण उपाधिरूप भाव छे, ते मारा ज्ञानदर्शनस्वरूपथी भिन्न छे. साची शांति जोईती होय
तो हे जीवो! आवा आत्माने तमे ओळखो.
पोताना शरीरने आत्मा माने छे, एटले तेमां ज ते मूर्छायेलो छे; पण शरीरथी भिन्न
चैतन्य–